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________________ दूसरा बोल-१५१ उतना ही थोडा है । तो फिर जिन माता-पिता ने ऐसे समय मे सब प्रकार की सहायता और सुविधा प्रदान की है, उनका कितना अपरिमित उपकार है, इस बात का जरा विचार तो कीजिए !" गर्भस्थान के कारागार से हम लोग बाहर निकले और माता-पिता की छत्र छाया तले सुखपूर्वक बढते-बढते इस स्थिति मे आये हैं । यह स्थिति पाकर हमारा कर्त्तव्य क्या है, इस बात का जरा गहराई से विचार करना चाहिये । हम जिस कैदखाने मे बन्द रह चुके हैं, फिर उसी मे बन्द होना उचित है अथवा ऐसा मार्ग खोजना उचित है कि फिर कभी उसमें बन्द न होना पडे ? भगवान् ने सवेग के साथ निर्वेद का होना इसीलिए आवश्यक बतलाया है कि जिससे फिर कंदखाने मे बन्द न होना पड़े । अतएव देवो, मनुष्यो और तिर्यचो के कामभोगो मे सच्चा सुख मत समझो । यह कामभोग तो ससार-परिभ्रमण करने वाले है । इनसे निवृत्त होने मे ही कल्याण है । अगर ललिनाग चतुर होगा तो वह फिर _कभी ऐसा काम करेगा, जिससे पाखाने मे लटकना पडे ? और औधे मुंह लटकना पड़े ? यह कथा उपनय है। सभी ससारी जीव अनुभव कर चुके हैं कि उन्हे किस-किस प्रकार के कैदखानो मे कैसे-कैसे कष्ट भुगतने पड़े है | आप ललिताग को उपदेश देंगे कि दुख भोगने वहाँ क्यो जाता है ? लेकिन यही उपदेश अपनी आत्मा को दो कि-'आत्मन् ! तू शरीर-रूपी कैदखाने मे पड़ने के काम बार-बार क्यो करता है. ?' दूसरो को उपदेश देने से ही तुम्हारा कुछ भी लाभ नहीं होगा, अपने आपको सुधारो । इसी मे कल्याण है। निर्वेद के विषय में प्रश्न किया गया है कि-भगवन् !
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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