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________________ १५०-सम्यक्त्वपराक्रम (१) आहार में से रसवाहिनी नाडी द्वारा थोडा आहार अर्थात एक देश का आहार ग्रहण करता है । ऐसा कष्ट थोड़े बहुत दिन नही, नौ महीने तक भोग है। इतना ही नही, कभीकभी तो वारह वर्ष या चौबीस वर्ष तक भी ऐसा कष्ट भोगना पडा है । यह कष्ट क्या एक डोरी के सहारे लटकने के समान कष्ट नही है ? गर्भ मे वालक भी एक नाडी के सहारे ही लटकता रहता है फिर किसी पुण्य के प्रताप से या किसी सावन द्वारा उसका जन्म होता है गर्भ से बाहर निकलते समय अगर सार-संभाल करने वाला कोई न हुआ तो कैसी विडवना होती है ? आज आप यह अभिमान करते है कि माता-पिता ने हमारे लिए क्या किया है ? किन्तु तनिक अपनी गर्भावस्था या वाल्यावस्था के विपय मे विचार करो कि उस समय तुम्हारी क्या हालत थी ? अगर माता-पिता ने उस समय आपको सँभाला न होता तो कैसी दशा होती ? माता-पिता के उपकार का विचार आने पर मुझे एक पुरानी कविता याद आ जाती है : डगमग पग टकतो नहीं, खाई न सकतो खाद । उठी न सकतो आप थी, लेश हती नहिं लाज || ते अवसर प्राणी दया, बालक ने मां-बाप । मुख आपे दुख वेठीने, ते उपकार अमाप ।। कोई करे एवा समै, वे घडी एक वरदास । आखी उमर थई रहे, तो नर नो नर दास ॥ गर्भावस्था मे या वाल्यावस्था में घडी-दो घडी सहायता करने वाले सहायक का उपकार मनुष्य जितना माने,
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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