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________________ १२२-सम्यक्त्वपराक्रम (१) पड जाते हैं पर सीता के समान अपने गील की रक्षा करते हो ऐसा नही देखा जाता। लोग यह तो देखते है कि किसका फैशन अच्छा है, मगर यह नही देखते कि किसका शील सुरक्षित है । आज हृदय में तो कुटिलता का पाप भग रहता है और ऊपर से अपने को धर्मी प्रकट करने के लिये धर्म का स्वाग रचा जाता है । परन्तु यह सच्ची धर्मश्रद्धा नही है, धर्म के नाम पर की जाने वाली पोखेबाजी है । धर्म की सच्ची श्रद्धा वाला अपने पापो को दवा या छिपा नही रखता, वह अपने पापो को नग्न रूप मे परमात्मा के समक्ष प्रकट कर देता है । परन्तु आज क्या होता है - कैसे देउ नाहिं खोरी । किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखो चोरि, सगवश कियो शुभ सुनाये सकल लोक निहोरी ।कैसे०।। भक्त कहता है-हे प्रभो । मैने जो पाप प्रेमपूर्वक किये है, उन्हे मैं हृदय मे छिपा रखता हूं-प्रकट नही करता, और किसी के कहने सुनने से या किसी के साथ अथवा पूर्वजो से प्राप्त सस्कारो के कारण मुझसे जो अच्छा काम हो गया है, उसे मैं दुनिया भर को सुनाता फिरता हू ।' आज यही देखा जाता है कि अगर किसी ने थोडा सा शुभ काम किया तो दानी या उदार कहकर समाचार पत्रों में बडे-बडे अक्षरों में उसकी प्रशसा की जाती है । मगर शुभ कामो की तरह क्या कोई अपने अशुभ कामो का भी विज्ञापन करता है ! अगर नही, तो परमात्मा को क्यो दोप दिया जाता है कि वह हमे तारता नही है ? उचित तो यह है कि धर्म या शुभ काम को प्रकट न किया जाये और पाप या अशुभ काम को ही प्रकट किया जाये । मगर सकललो कहता है किये है,
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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