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________________ १२०-सम्यक्त्वपराक्रम (१) जागृत होने से इस प्रकार का क्रोध, मान, माया और लोभ नष्ट हो जाता है, या वह अल्प परिमाण मे रह जाता है। जब तक अनन्तानुवधी कोष, मान, माया और लोभ की प्रवलता रहती है, तब तक धर्म पर श्रद्धा भी उत्पन्न नही होती और जव धर्म पर श्रद्धा उत्पन्न होगी तब यह क्रोध, मान, माया और लोभ नष्ट हो जाएंगे अथवा अल्प परिमाण मे रहेगे । कदाचित् किसी पर क्रोध होगा भी तो वह । थोडी देर में गात हो जायेगा और हृदय फिर स्वच्छ बन जाएगा । अनुत्नर धर्म पर श्रद्धा पैदा होने पर अनन्तानुवधी क्रोध आदि नही रह पाते और उस स्थिति मे देव-दानव भी अगर धर्म से विचलित करना चाहे तो वह भी उस दृढघर्मी को विचलित नही कर सकते । ऐसे दढवर्मी के विपय मे कदाचित् कोई कहता है कि यह क्रोधी है या मानी है और हमारी बात नही मानता, तो दृढवर्मी इस प्रकार के कथन पर ध्यान नही देता और अपने धर्म से विचलित भी नही होता । जैसे मजीठ का रग ऐसा पक्का माना जाता है कि उस पर दूसरा रग नही चढता, उसी प्रकार दृढधर्मी पर धर्म का रग ऐसा पक्का चढा रहता है कि उस पर पाप का रग किसी भी प्रकार नहीं चढ सकता । शास्त्र में ऐसे दृढवर्मियो के अनेक उदाहरण मिलते है. और कथासाहित्य में भी अनेक उदाहरण देखे-सुने जाते है । उदाहरणार्थ एक ओर सीता थी और दूसरी ओर रावण था। दोनो अपनी-अपनी बात पर दृढ थे। रावण को उसके भाई विभीपण ने और उसकी पत्नी मन्दोदरी ने भी बहुत समझाया था और रावण ने सीता को भी समझाने मे कमी नही रखी थी, फिर भी दोनो अपनी-अपनी बात पर अटल
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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