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________________ ११०-सम्यक्त्वपराक्रम (१) पत्नी की ऐसी बाते सुनकर पुरुष का उग्न बन जाना स्वाभाविक है । परन्तु द्रौपदी की बातो के उत्तर मे युधिष्ठिर कहते है-'देवी । आज तुममे इतनी उग्रता क्यों जान पडती है ? मुझे तो ऐसे कष्ट के समय भी सब भाई बडे ही सुन्दर जान पड़ते हैं और तू भी बहुत सुन्दर दिखाई देती है । इस समय मैं भी ऐसा हूँ कि इन्द्र भो मेरी बरावरी नही कर सकता । तुम इस समय को खराव वालाती हो, परन्तु मैं पूछता हूं कि यह समय खराव है या वह समय खराव था जव वस्त्रहीन करने के लिए तुम्हारा चीर खीचा गया था ? द्रौपदी ने उत्तर दिया- वह समय तो वहत ही खराव था । इस समय निश्चिन्त हो जीवनयापन कर रहे है, मगर उस समय तो जीवित रहना भी कठिन हो गया था । उस समय का दुख तो महाभयकर था । युधिष्ठिर बोले-तो उस समय किसने तुम्हारी लाज रखी थी ? उस समय को नजर के सामने रखकर मैं विचार करता है तो यह समय मुझे प्रिय लगता है। मुझे यह समय इसलिए खराव नहीं लगता क्योकि इस समय में धर्म का पालन होता है । तुम बार-बार इस समय की निंदा करती हो, लेकिन जरा विचार करो कि किसी प्रकार का अपराध न करने पर भी, धर्म के पालन के लिए हम लोगो को इस समय सकट सहने पड़ते हैं। इससे बढकर दूसरा आनन्द और क्या हो सकता है ? युधिष्ठिर और उनके भाई जगल में कष्ट सहन कर रहे थे, फिर भी दुर्योधन की आँखो में वे कांटे की तरह खटकते थे । दुर्योधन ने विचार किया- इस समय पाण्डव
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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