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________________ १०० - सम्यक्त्वपराक्रम ( १ ) भी वस्तु के प्रति ममत्व न हुआ तो वही गुरु सच्चे देव और सच्चे धर्म का परिचय करा सकते हैं । श्रतएव निर्ग्रन्थ गुरु को ही गुरु मानना चाहिए । इस प्रकार वीतराग देव, वीतराग धर्म और निर्ग्रन्थ गुरु के प्रति अनुराग रखने से सवेग की वृद्धि होती है । जो भव्य मोक्ष प्राप्त करने की भावना रखेगा और जो ससार की आग से बचना चाहेगा वही ऐसे देव, गुरु और धर्म का अरुण गहेगा और अपनी आत्मा का कल्याण साधेगा । तुम भी ऐसे देव, गुरु और धर्म के शरण में जाओगे तो तुम्हारा ही कल्याण होगा । " सवेग निर्भय बनने का पहला मार्ग है । अगर अपना वेग ठीक ( सम्यक् ) रखा जाये तो भय होने का कोई कारण नही है | सवेग मे भय को कोई स्थान नही है । सवेग में निर्भयता है और जो सवेग धारण करता है वह निर्भय बन जाता है । सवेग किसे कहते हैं, यह पहले बतलाया जा चुका है । उसका सार इतना ही है कि 'मोक्ष की अभिलापा और मोक्ष के लिए किया जाने वाला प्रयत्न ही सवेग है । मोक्ष की इच्छा रखने वाला कर्मबंधन को ढीला करने की इच्छा रखता है । कारागार को जो वचन मानता है वही उससे छुटकारा पाने की भी इच्छा करता है । कारागार को बधन ही न मानने वाला उससे छूटने की भी क्यो इच्छा करेगा ? बल्कि वह तो उस वधन को और मजबूत करना चाहेगा । ऐसा मनुष्य कारागार के बधन से मुक्त भी नही हो सकता । इसी प्रकार इस संसार को जो बघन रूप मानता है 'हस्त अशीरे कमदे हवा' अर्थात् मैं इस लालचरूप दुनिया की जेल मे हूं
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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