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________________ - सम्यग्दर्शन को ही अपना स्वरूप मान रहा है वह जीव अशुद्धताको दूर करनेका प्रयत्न नहीं कर सकता, इसलिये सबसे पहले अपने शुद्ध स्वभावको पहचानना चाहिये । इस गाथामें आत्माके शुद्ध स्वभावको पहचाननेकी रीति वताई "अरिहन्तका स्वरूप सर्व प्रकार स्पष्ट है जैसी वह दशा है वैसी ही इस आत्माकी दशा होनी चाहिए। ऐसा निश्चय किया अर्थात् यह जान लिया कि जो अरिहन्त दशामें नहीं होते वे भाव मेरे स्वरूपमें नहीं हैं और इसप्रकार विकार भाव और स्वभावको भिन्न २ जान लिया, इसप्रकार जिसने अरिहन्तका ठीक निर्णय कर लिया और यह प्रतीति कर ली कि मेरा आत्मा भी वैसा ही है उसका दर्शन मोह नष्ट होकर उसे क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। ध्यान रहे कि यह अपूर्व बात है, इसमें मात्र अरिहन्तकी वात नहीं है किन्तु अपने आत्माको एकमेक करनेकी बात है। अरिहन्तका ज्ञान करने वाला तो यह आत्मा है। अरिहन्तकी प्रतीति करने वाला अपना ज्ञान स्वभाव है। जो अपने ज्ञान स्वभावके द्वारा अरिहन्तकी प्रतीति करता है उसे अपने आत्माकी प्रतीति अवश्य होजाती है। और फिर अपने स्वरूपकी ओर एकाग्रता करते करते केवलज्ञान हो जाता है। इसप्रकार सम्यग्दर्शनसे प्रारम्भ करके केवलज्ञान प्राप्त करने तकका अप्रतिहत उपाय बता दिया गया है। ८२ वीं गाथामें कहा गया है कि समस्त तीर्थकर इसी विधिसे कर्मका क्षय करके निर्वाणको प्राप्त हुये हैं और यही उपदेश दिया है। जैसे अपना मुँह देखने के लिये सामने स्वच्छ दर्पण रक्खा जाता है उसीप्रकार यहाँ आत्मस्वरूप को देखनेके लिए अरिहन्त भगवानको आदर्शरूपमें (आदर्शका अर्थ दर्पण है) अपने समक्ष रखा है। तीर्थंकरोंका पुरुषार्थ अप्रतिहत होता है, उनका सम्यक्त्व भी अप्रतिहत होता है, और श्रेणी भी अप्रतिहत होती है और यहाँ तीर्थंकरोंके साथ मिलान करना है इसलिये तीर्थंकरोंके समान ही अप्रतिहत सम्यग्दर्शनकी ही बात. ली गई है मूल सूत्र में "मोहो
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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