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________________ --* सम्यग्दर्शन पूजनीक हो जाती है। अर्थात् वास्तविक फलदायी और उत्कृष्ट महिमा योग्य होती है। पाषाण और मणि-यह दोनों एक पत्थर की जातिके है, अर्थात् जाति अपेक्षासे तो यह दोनों एक हैं। तथापि शोभा, झलक आदिके विशेषपनेके कारण मणिका थोड़ा-सा भार वहन करे तो भी भारी महत्वको प्राप्त होता है, लेकिन पाषाणका अधिक भार उसके उठानेवालेको मात्र कष्टरूप ही होता है, उसीप्रकार मिथ्यात्व क्रिया और सम्यक्त्व क्रिया-दोनों क्रिया की अपेक्षासे तो एक ही हैं; तथापि अभिप्रायके सत्-असत्पनेके तथा वस्तुके भान-बेभानपनेके कारणको लेकर मिथ्यात्व सहित क्रियाका अधिक भार वहन करे तो भी वास्तविक महिमा युक्त और आत्मलाभपनेको प्राप्त नहीं होता, परन्तु सम्यक्त्व सहित अल्प भी क्रिया यथार्थ आत्मलाभदाता और अति महिमा योग्य होती है। (आत्मानुशासन पृ० ११) मोक्ष और बन्धका कारण साधक जीवके जहाँ तक रत्नत्रयभावकी पूर्णता नहीं होती वहाँ के तक उसे जो कर्मवंध होता है, उसमें रत्नत्रयका दोष नहीं है । रत्नत्रय तो मोक्षका ही साधक है, वह बंधका कारण नहीं होता, परन्तु उम समय रत्नत्रयभावका विरोधी जो रागांश होता है वही बंधका कारण है। जीवको जितने अशमें सम्यग्दर्शन है उतने अंशतक बंधन नहीं.. होता; किन्तु उसके साथ जितने अंशमें राग है उतने ही अंग तक उम रागांशसे बंधन होता है। (पुस्पार्थ मिद्ध्युपाय गाया २५) ARTIME
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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