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________________ - - 20 M भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला सावधान है उसे कर्मके उदयको शंका कदापि नहीं होती। पहले अनादिकालसे विकारको अपना स्वरूप मानकर असावधान होरहा था उसकी जगह अब चैतन्य स्वरूपके लक्ष्यसे सावधान होकर विकारका लक्ष्य छोड़ दिया है। अर्थात् यदि अब विकार हो तो भी वह मेरे चैतन्य स्वरूपसे भिन्न है। इस प्रकार सावधान होकर आत्मा और बन्धके बीच प्रज्ञारूपी छैनी चलानी चाहिये। 'प्रज्ञारूपी छैनी चलानी चाहिये इसका अर्थ यह है कि आत्मामें सम्यकज्ञानको एकाग्र करना चाहिये । यह चैतन्य स्वरूप मै आत्मा हूँ और यह परकी ओर जानेवाली जो भावना है सो राग है, इसप्रकार आत्मा और बन्धकी पृथक्त्वकी संधि जानकर ज्ञानको चैतन्य स्वभावी आत्मामें एकाग्र करने पर रागका लक्ष्य छूट जाता है। यही प्रज्ञा. छैनीका चलाना है।। ५-प्रज्ञाछैनी शीघ्र चलती है-प्रज्ञा छैनीके चलनेमें विलंब नहीं लगता किन्तु जिस क्षणमे चैतन्यमें एकाग्र होता है उसी क्षण राग और आत्मा भिन्नरूपसे अनुभवमे आते है। यह इस समय नही हो सकता यह बात नहीं है, क्योंकि यह तो प्रतिक्षण कभी भी हो सकता है। प्रज्ञाछैनोके चलने पर क्या होता है अर्थात् प्रज्ञाछैनी किसप्रकार चलती है ? अन्तरंगमें जिसका चैतन्य तेज स्थिर है ऐसे ज्ञायक भावको ज्ञायकरूपसे प्रकाशित करता है। 'मै ज्ञान हूँ ऐसा विकल्प भी अस्थिर है, इस विकल्पको तोड़कर सम्यकज्ञान मात्र चैतन्यमें मग्न होता है, रागसे पृथक् होकर ज्ञान चैतन्यमें स्थिर होता है, इसप्रकार चैतन्यमें मग्न होती हुई निर्मलरूपसे चलती है। और जितना पुण्य पापकी वृत्तियोंका उत्थान है उस सबको बन्धभावमे निश्चल करती है। इसप्रकार आत्माको आत्मामें मग्न करती हुई और बन्धको अज्ञान भावमे नियत करती हुई प्रज्ञाछैनी चलती है-यही पवित्र सम्यग्दर्शन है। प्रज्ञाछैनी चलती है-इस सम्बन्ध में यहाँ क्रम से बात कही है, समझानेके लिये क्रमसे कथन किया है, किन्तु वास्तवमें अन्तरंगमें क्रम नहीं
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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