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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला ३१ उत्तर—जिने ऐसा लगता है कि 'इतना सब किया' उसके मिथ्यात्व की प्रबलता है । जो बाहर से शरीरकी क्रिया इत्यादि को ऊपरी दृष्टि से देखता है उसे ऐसा लगता है कि 'इतना सब तो किया है,' किन्तु ज्ञानी कहते है कि उसने कुछ भी अपूर्व नहीं किया, मात्र बन्ध भाव ही किया है, शरीरको क्रियाका और शुभरागका अहकार किया है । यदि व्यवहार दृष्टि ने कहा जाय तो उसने पुण्य भाव किया है और परमार्थसे देखा जाय तो पाप ही किया है । राग अथवा विकल्पसे आत्माको लाभ मानना सो महा मिथ्यात्व है, उसे भगवानने पापही कहा है । वह एक प्रकारके बन्धभावको छोड़कर दूसरे प्रकारका बन्धभाव करता है, परन्तु जबतक बन्धभावकी दृष्टिको छोड़कर अबन्ध आत्मस्वभावको नहीं पहिचान लेता तबतक उसने आत्मदृष्टिसे कुछ नहीं किया । वास्तवमें तो बन्धभावका प्रकार ही नहीं बदला, क्योंकि उससे समस्त बन्धभावोंका मूल जो मिथ्यात्व है उसे दूर नही किया है । ( १२ ) बाह्य त्यागी किंतु अंतर अज्ञानी अधर्मी है अज्ञानी स्वयं खाने पीनेका, वस्त्रका और रुपये पैसे इत्यादिका राग नहीं छोड़ सकता इसलिये वह किसी अन्य अज्ञानीके बाह्यमें अन्न वस्त्र और रुपये पैसे इत्यादिका त्याग देखता है तो वह यह मान बैठता है कि 'उसने बहुत कुछ किया है और वह मेरी अपेक्षा उच्च है' । किन्तु वह जीव भी बाहरसे त्यागी होने पर भी अन्तरंग में अज्ञानके महापापका सेवन कर रहा है, वह भी उसीकी जातिका है । जो अन्तरंगी पहिचान किये बिना बाहरसे ही अनुमान करता है वह सत्य तक नहीं पहुँच सकता । 2. (१३) बाह्य अत्यागी किंतु अंतर्ज्ञानी धर्मात्मा है ऊपर जो त्यागी अज्ञानीका दृष्टान्त दिया है, अत्यागी ज्ञानी के सम्बन्धमें उससे उल्टा समझना चाहिये । ज्ञानी गृहस्थ दशामें हो और - उसके राग भी हो तथापि उसके अन्तरंगमें सर्व परद्रव्योंके प्रति उदासीन
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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