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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शाखमाला २६ मेरा स्वरूप नहीं है इसलिये वह ज्ञानकी ही भावना करता है और इसीलिये विकार की ओरसे उसका पुरुषार्थ हट जाता है। ज्ञानके अस्तित्वमें विकार का नास्तित्व है। पहले रागादिक पहचाना नहीं जाता था और अब ज्ञान सूक्ष्म रागादिक भी जान लेता है क्योंकि ज्ञानकी शक्ति विकसित होगई है ज्ञान सूक्ष्म विकल्पको भी बन्ध भावके रूपमें जान लेता है, इसमें रागकी शक्ति नहीं किन्तु ज्ञानकी ही शक्ति है। ऐसे स्वाश्रय ज्ञानकी प्रतीति, रुचि, श्रद्धा, और स्थिरताके अतिरिक्त अन्य सब उपाय आत्महितके लिये व्यर्थ हैं। अपने परिपूर्ण स्वाधीन स्वतत्त्वकी शक्ति की प्रतीतिके बिना जीव अपनी स्वाधीन दशा कहांसे लायगा ? निजकी प्रतीति वाला निज की ओर झुकेगा और मुक्ति प्राप्त करेगा; जिसे निजकी प्रतीति नहीं है वह विकार की ओर मुकेगा और संसारमें परिभ्रमण करेगा। ज्ञान चेतन स्वरूप है अर्थात् वह सदा चैतन्य-जागृत रहता है। जो वृत्ति आती है उसे ज्ञानके द्वारा पकड़कर तत्काल छिन्न-भिन्न कर देता है और प्रत्येक पर्यायमें ज्ञानशक्ति बढ़ती जाती है । जो एक भी वृत्ति को कदापि मोक्षमार्गके रूपमें स्वीकार नहीं करता ऐसा भेदज्ञान वृत्तियों को तोड़ता हुआ, स्वरूपकी एकाग्रताको बढ़ाता हुआ मोक्षमार्ग को पूर्ण करके मोक्षरूप परिणमित हो जाता है ऐने परिपूर्ण ज्ञान स्वभावकी शक्तिका बल जिसे प्रतीतिमें जम गया उसे अल्पकालमें मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। मोक्ष का मूल भेदविज्ञान है। रागको जानकर रागसे भिन्न रहने वाला ज्ञान मोक्ष प्राप्त करता है और राग को जानकर भी रागमें अटक जानेवाला ज्ञान बन्धको प्राप्त करता है। ___ ज्ञानीके प्रज्ञारूपी छैनीका बल यह होता है कि यह भावनायें तो प्रतिक्षण चली जा रही हैं और उपरोक्त भावनाओंसे रहित मेरा ज्ञान बढ़ता ही जाता है। अज्ञानीके मनमें ऐसे विचार उठते है कि-अरे, मेरे ज्ञानमें यह भावना उत्पन्न हुई है और भावनाके साथ मेरा ज्ञान भी चला
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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