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________________ -* सम्यग्दर्शन निरतिचार पाले वही धन्य है, वही कृतार्थ है। वहीं शूरवीर है, वहीं पंडित है, वही मनुष्य है । इस (सम्यक्त्व ) के बिना मनुष्य पशु समान हैऐसा सम्यक्त्व का माहात्म्य कहा है। सम्यक्त्व ही प्रथम धर्म है और यही प्रथम कर्तव्य है। सम्यग्दर्शन के विना ज्ञान, चारित्र और तपमें सम्यक्पना नहीं आता, सम्यग्दर्शन ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तपका आधार है। जिसप्रकार नेत्रों से मुख को सौंदर्य प्राप्त होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनसे जानादिक में सम्यकपने की प्राप्ति होती है। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि न सम्यक्त्वसमं किंचित्काल्ये त्रिजगत्यपि । ..श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यतनू भृताम् ॥ ३४ ॥ अर्थः—सम्यग्दर्शनके समान इस जीवको तीनकाल तीनलोक में कोई कल्याण नहीं है और मिथ्यात्वके समान तीनलोक तीनकालमें दूसरा कोई अकल्याण नहीं है। . भावार्थ:-में कहा है कि-अनन्तकाल तो व्यतीत होगया, एक समय वर्तमान चल रहा है और भविष्य में अनन्तकाल आयेगा । इन तीनों काल में और अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक-इन तीनों लोक में जीव को सर्वोत्कृष्ट उपकारी, सम्यक्त्व के समान न तो कोई है, न हुआ है और न होगा । तीन लोक में विद्यमान-ऐसे तीर्थकर, इन्द्र, अहमिन्द्र, भुवनेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र आदि चेतन और मणि, मंत्र, औषधि आदि जड़-यह कोई द्रव्य सम्यक्त्व के समान उपकारी नहीं हैं। और इस जीव का सबसे महान अहित-बुरा जैसा मिथ्यात्व करता है वैसा अहित करने वाला कोई चेतन या जड़ द्रव्य तीनकाल तीनलोक में न तो है, न हुआ है, और न होगा। इससे मिथ्यात्व को छोड़ने के लिये परम पुरुपार्थ करो । संसार के समस्त दुःखों का नाशक
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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