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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला २२६ भी पदार्थ में ज्ञातृत्व नहीं है । जो अनंत जीव हैं वे एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। . (२) पुद्गल-इस जगतमै अनन्तानन्त पुद्गल हैं; वे रूप, रस, गंध, स्पर्शके द्वारा पहचाने जाते हैं, क्योंकि पुद्गलके अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ में रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं होते । इन्द्रियोंके द्वारा जो भी दिखाई देता है वह सब पुद्गल द्रव्यसे बने हुये स्कंध हैं। . (३)धर्म——यहाँ धर्मका अर्थ आत्माका धर्म नहीं है, किन्तु धर्म नामका प्रथक् द्रव्य है। यह द्रव्य एक अखंड द्रव्य है जो समस्त लोक में विद्यमान है। जीव और पुद्गलोंके गति करते समय यह द्रव्य निमित्त रूप पहचाने जाते हैं। (४) अधर्म-यहॉ अधर्मका अर्थ पाप अथवा आत्माका दोष नहीं है किन्तु 'श्रधर्म नामका स्वतंत्र द्रव्य है। यह एक अखंड द्रव्य है जो कि समस्त लोकमें विद्यमान है। जब जीव और पुद्गल गति करते रुक जाते हैं तब यह द्रव्य उस स्थिरतामें निमित्त रूप पहिचाने जाते हैं। (५) आकाश-यह एक अखंड सर्व व्यापक द्रव्य है। यह समस्त पदार्थोंको स्थान देने में निमित्त रूप पहचाने जाते हैं। इस द्रब्यके जितने भागमें अन्य पॉच द्रव्य रहते हैं उतने भागको 'लोकाकाश' कहते हैं और जितना भाग पाँच द्रव्योंसे रहित-खाली होता है उसे अलोकाकाश कहते हैं । जो खाली स्थान कहा जाता है उसका अर्थ मात्र आकाश द्रव्य होता है। (६) काल-काल द्रव्य असंख्य हैं । इस लोकमें असंख्य प्रदेश हैं, उस प्रत्येक प्रदेश पर एक एक काल द्रव्य स्थित है। जो असंख्य कालाणु हैं वे सब एक दूसरेसे पृथक् हैं यह द्रव्य वस्तु के रूपांतर (परिवर्तन ) होने में निमित्त रूप पहचाने जाते हैं। इन छह द्रव्योंको सर्वज्ञके अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रत्यक्ष नहीं जान सकता। सर्वज्ञदेवने ही इन छह द्रव्योंको जाना है और उन्होंने उनका
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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