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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला २१६ स्वरूपमें त्रिकाल स्थिर है इसलिये वह दूसरे में कभी नहीं मिलता। इसे अनेकांत स्वरूप कहा जाता है, अर्थात् वस्तु अपने स्वरूपसे है और दूसरे स्वरूपकी अपेक्षासे नहीं है । जैसे लोहा लोहेके स्वरूपकी अपेक्षासे है किन्तु वह लकड़ीके स्वरूपकी अपेक्षासे नहीं है। जीव जीव स्वरूपसे है, किंतु वह जड़ स्वरूपसे नहीं है। ऐसा स्वभाव है इसलिये कोई वस्तु अन्य वस्तुमें नहीं मिल जाती, किन्तु सभी अपने-अपने स्वरूपसे भिन्न ही रहती हैं। नित्य-अनित्य जीव अपने वस्तु स्वरूपसे स्थिर रहकर पर्यायकी अपेक्षाले बदलता रहता है, किन्तु नीव जीव रूपमें ही बदलता है। जीवकी अवस्था बदलती है, इसीलिये संसार दशाका नाश करके सिद्धदशा हो सकती है । और जीव और अज्ञानदशाका नाश करके ज्ञान दशा हो सकती है। और नित्य है इसलिये संसार दशाका नाश हो जाने पर भी वह मोक्ष दशा रूपमें स्थिर बना रहता है। इसप्रकार वस्तुकी अपेक्षासे नित्य और पर्यायकी अपेक्षाले अनित्य समझना चाहिये। परमाणुमें भी उसकी अवस्था बदलती है, किन्तु किसी वस्तुका नाश नहीं होता । दूध इत्यादिका नाश होता हुआ दीखता है, किन्तु वास्तवमें वह वस्तुका नाश नहीं है । दूध कहीं मूल वस्तु नहीं है, किन्तु वह तो बहुत से परमाणुओंकी स्कंधरूप अवस्था है, और वह अवस्था बदलकर अन्य दही इत्यादि अवस्था हो जाती है, किन्तु उसमें परमाणु-वस्तु तो स्थिर बनी ही रहती है। और फिर दूध बदलकर दही हो जाता है इसलिये वस्तु अन्य रूप नहीं हो जाती । परमाणु वस्तु है वह तो सभी अवस्थाओंमें परमाणु रूप ही रहती है। वस्तु कभी भी अपने स्वरूपको नहीं छोड़ती। श्रीमद् रामचन्द्रजीने कहा हैक्यारे कोई वस्तु नो केवल होय न नाश, चेतन पामे नाश तो केमां भले तपास ? कभी किसी भी वस्तुका केवल होय न नाश, चेतन पामे नाश तो किसमें मिले तपास ? [अात्मसिद्धि ७०] जड़ अथवा चेतन किसी भी वस्तुका कभी सर्वथा नाश नहीं
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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