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________________ २०६ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला (४३) धर्मकी पहली भूमिका भाग २ -मिथ्यात्वमिथ्यात्वका अर्थ गलत या विपरीत मान्यता किया था। हमें यह नहीं देखना है कि परमें क्या यथार्थता या अयथार्थता है, किन्तु आत्मामें क्या अयथार्थता है यह समझाकर अयथार्थताको दूर करने की बात है। क्योंकि जीवको अपनी अयथार्थता दूर करके अपनेमें धर्म करना है। मिथ्यात्व द्रव्य है, गुण है या पर्याय ? इसके उत्तरमें यह निश्चित कहा गया है कि मिथ्यात्व श्रद्धा गुणकी एक समय मात्रकी विपरीत पर्याय है। मिथ्यात्व अनन्त संसारका कारण है। यह मिथ्यात्व अर्थात सबसे बड़ी से बड़ी भूल अनादि कालसे जीव स्वयं ही करता चला आया है। -महापापइस मिथ्यात्वके कारण जीव वस्तुके वैसा नहीं मानता जैसा वह है, किंतु विपरीत ही.मानता है। इसलिये मिथ्यात्व ही वास्तवमें असत्य है। इस महान असत्यके सेवन करते रहने में प्रतिक्षण स्व हिंसाका महापाप लगता है। प्रश्न विपरीत मान्यताके करने से किस जीवको मारनेकी हिंसा या पाप लगता है ? उत्तर-अपना स्वाधीन चैतन्य आत्मा जैसा है उसे वैसा नहीं -माना किन्तु उसे जड़-शरीरका कर्ता माना (अर्थात् जड़रूप माना) सो इस मान्यतामें आत्माके अनन्त गुणोंका अनादर है, और यही अनन्ती स्वहिंसा है । स्व हिंसा ही सबसे बड़ा पाप है। इसे भाव हिंसा या भाव मरण भी कहते हैं । श्रीमद् रामचन्द्रजीने कहा है-"क्षण क्षण भयंकर भाव मरणमें, कहाँ अरे तू.रच रहा ?" यहाँ भी मिथ्यात्वको ही भाव मरण कहा है। २७
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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