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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला २०१ -- - दुःखका होना निश्चित करें कोई कहता है कि जीवके दुःख क्यों कहा जाय ? रुपया पैसा हो, खाने पीने की सुविधा हो और जो चाहिये वह मिल जाता हो फिर भी उसे दुःखी कैसे कहा जाय ? उत्तर- भाई ! तुझे परवस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छा होती है या नहीं ? तेरे मनमें अंतरंग से यह इच्छा होती है या नहीं कि मेरे पास पर सामग्री रुपया पैसा इत्यादि हो तो ठीक हो और यह सब हो तो मुझे सुख हो, इसप्रकारकी इच्छा होती है सो यही दुःख है । क्योंकि यदि तुझे दुःख न हो तो पर वस्तु प्राप्त करके सुख पानेकी इच्छा न हो । यहॉपर अज्ञान पूर्वक इच्छा की बात है क्योंकि अज्ञान-भूलके दूर होने पर अस्थिरताको लेकर होने वाली जो इच्छा है उसका दुःख अल्प है । मूल दुःख अज्ञान पूर्वक इच्छाका ही है । इच्छा कहो, दुःख कहो, आकुलता कहो अथवा परेशानी कहो सबका अर्थ एक ही है । यह सब मिथ्यात्वका फल है । अपने स्वरूपकी अप्रतीत दशा में इच्छाके बिना जीवका एक समय भी नही जाता निरन्तर अपने को भूलकर इच्छा होती ही रहती है और वही दुःख है । जीवकी सबसे बड़ी भयंकर भूल होती है इसलिये महान् दुःख है । अर्थात् जीवके एकके बाद दूसरी इच्छा ड्योढ़ लगाये रहती है और वह रुकती नहीं है यही महान् दुःख है । उसका कारण मिथ्यात्व - विपरीत मान्यता- महान् भूल है । मिथ्यात्व क्या है ? यह यहॉपर कहा जाता है । - मिथ्यात्व क्या है : यदि मिथ्यात्व द्रव्य अथवा गुण हो तो उसे दूर नहीं किया जा सकता; किन्तु यदि वह मिथ्यात्व पर्याय हो तो उसे बदलकर मिथ्यात्व दूर किया जा सकता है । · c. मिथ्यात्व - विपरीतता है । विपरीतता कहते ही यह सिद्ध हुआ कि उसे बदलकर सीधा ( यथार्थ ) किया जा सकता है । मिथ्यात्व जीवके २६
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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