SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला १६५ श्यक्ता नहीं है, किन्तु स्वभावके ही आश्रयकी आवश्यक्ता है। स्वभावका अनुभव करते हुए मैं शुद्ध हूँ' इत्यादि विकल्प आजाता है, परन्तु जबतक उस विकल्पमें लगा रहता है तब तक अनुभव नहीं होता । यदि उस विकल्प को तोड़कर नयातिक्रांत होकर स्वभावका आश्रय करे तो सम्यक निर्णय और अनुभव हो, वही धर्म है । जैसे तिजोरीमें रखे हुए एक लाख रुपये बही खातेके हिसाबकी अपेक्षासे या गिनतीके विचारके कारण स्थित नहीं हैं, किन्तु जितने रुपये हैं वे स्वयं ही है, इसप्रकार आत्मस्वभावका अनुभव शास्त्रके आधारसे अथवा उसके विकल्पसे नही होता, अनुभव तो स्वभावाश्रित है। वास्तवमें स्वभाव और स्वभावकी अनुभूति अभिन्न होनेसे एक ही है, भिन्न नहीं है। दूसरी ओर यदि किसीके पास रुपया पैसा (पूजी) न हों तो किन्तु वह मात्र बहीखाता लिखा करे और विचार करता रहे-यों ही गिनता रहे तो उससे कहीं उसके पास पूजी नहीं हो जाती, इसीप्रकार आत्मस्वभावके आश्रयके बिना मात्र शास्त्रोंके पठन-पाठनसे अथवा आत्मा सम्बन्धी विकल्प करनेसे सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं हो जाता। . 'शास्त्रोंमें आत्माका स्वभाव सिद्धके समान शुद्ध कहा है' इसप्रकार जो शास्त्रोंसे माने उसके यथार्थ निर्णय नहीं होता। शास्त्रोंमें कहा है इसलिये आत्मा शुद्ध है-ऐसी बात नहीं है, आत्माका स्वभाव शुद्ध है, उसे शास्त्रोंकी अपेक्षा नही है, इसलिये स्वभावके ही आश्रयसे स्वभावका अनुभव करना सो सम्यग्दर्शन है। आत्मस्वभावका अनुभव किये बिना कर्म ग्रन्थ पढ़ लिये तो इससे क्या ? और आध्यात्मिक ग्रन्थोंको पढ़ डाले तो भी इससे क्या ? इनमेंसे किसी भी कार्यसे आत्मधर्मका लाभ नहीं होता। आत्मा करता है, अतः वह कैसा कर्म करे (कैसा कार्य करे) कि उसे धर्म लाभ हो,-यह बात इस कर्ताकर्म अधिकारमें बताई है। आत्मा जड़ कर्मको बांधे और कर्मात्माके लिये बाधक हों-यह बात तो यहाँ है ही नहीं, और 'मैं शुद्ध हूँ' ऐसा जो मनका
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy