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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला १६३ कैसे होता है ? किन्तु ज्ञानी कहते हैं कि सम्यग्दृष्टिके राग हुआ तो इससे क्या ?-उस रागके समय उसका निषेधक सम्यक् श्रद्धा और ज्ञान होता है या नहीं ? जो राग होता है वह श्रद्धा-ज्ञानको मिथ्या नहीं करता। ज्ञानीको चारित्रकी कचाईसे राग होता है, वहाँ अज्ञानी उस रागको ही देखता है परन्तु रागका निपेध करने वाले श्रद्धा और ज्ञानको नहीं पहिचानता। मिथ्यादृष्टि जीव स्वभावका अनुभव करनेके लिये ऐसा विचार करता है कि 'स्वभावसे मै अबन्ध निर्दोष तत्त्व हूँ और पर्यायदृष्टिसे बँधा हुआ हूँ'-इसप्रकार मनके अवलम्बनसे शासके लक्षसे रागरूप वृत्तिका उत्थान करता है, परन्तु स्वभावके अवलम्बनसे उस राग रूप वृत्तिको तोड़कर अनुभव नहीं करता तब तक उसे सम्यग्दर्शन नहीं होता। कोई जीव जैन दशनके अनेक शास्त्रोंको पढ़कर महा पंडित हो गया, अथवा कोई जीव बहुत समयसे बाह्य त्यागी हुश्रा और उसीमें धर्म मान लिया, किन्तु ज्ञानी कहते हैं कि इससे क्या ?-इसमें धर्म कहाँ है ? परके अवलम्बनमें अटक कर धर्म मानना मिथ्यादृष्टिका काम है। राग मात्रका अवलम्बन छोड़कर स्वभावके आश्रयसे निर्णय और अनुभव करना सम्यग्दृष्टिका धर्म है । और उसके बाद ही चारित्र दशा होती है। रागका अवलम्बन तोड़कर आत्म स्वभावका निर्णय और अनुभव न करे और दान, दया, शील, तप इत्यादि सब कुछ करता रहे तो इससे क्या ? यह तो सव राग है इसमें धर्म नहीं है। _आत्मा ज्ञान स्वरूप है, राग स्वरूप नहीं । ज्ञान स्वरूपमें वृत्तिका उत्थान ही नहीं है । मैं त्रिकाल अबन्ध हूँ ऐसा- विकल्प भी ज्ञान स्वरूप में नहीं है । यद्यपि निश्चयसे आत्मा त्रिकाल अबन्ध रूप ही है। यह बात तो इसी प्रकार ही है, परन्तु जो अबन्ध स्वभाव है वह 'मैं अबन्ध हूँ ऐसे विकल्पकी अपेक्षा नहीं रखता, अर्थात् 'मैं अबन्ध हूँ' ऐसे विकल्पका-अवलम्बन अबन्ध स्वभावकी श्रद्धाके नहीं है। विकल्प तो राग
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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