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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला १६१ प्रश्न-यदि सम्पूर्ण सुख सुविधा युक्त विशाल महल बनवाकर उनमें रहे तब तो सुखी होता है ? उत्तर-यदि विशाल भवनोंमें रहा तो इससे क्या ? क्या भवनमें से आत्माका सुख आता है ? महल तो जड़-पत्थरका है, आत्मा कहीं उसमें प्रविष्ट नहीं हो जाता। आत्मा अपनी पर्यायमें विकारको भोगता है, अपने स्वभावको भूलकर महलोंमें सुख माना सो यही महा पराधीनता और दुःख है.। उस जीवको बड़े बड़े भवनोंका बाह्य संयोग हो तो इससे आत्माको क्या ? कोई जीव सम्यग्दर्शनके बिना त्यागी हो और व्रत अंगीकार करे किन्तु इससे क्या ? सम्यकदर्शनके बिना धर्म नहीं होता। किसी जीवने शास्त्र ज्ञानके द्वारा आत्माको जान लिया, अर्थात् शास्त्रोंको पढ़कर या सुनकर यह जान लिया कि "मै शुद्ध हूँ, मेरे स्वरूपमें राग-द्वेष नहीं है, आत्मा पर द्रव्यसे भिन्न है और परका कुछ नहीं कर सकता, तो भी आचार्यदेव कहते हैं कि इससे क्या ! यह तो परके लक्षसे जानना हुआ, ऐसा ज्ञान तो अनन्त संसारी अज्ञानी जीव भी करते हैं; परन्तु स्व सन्मुख पुरुषार्थके द्वारा विकल्पका अवलम्बन तोड़कर जबतक स्वयं स्वानुभव न करे तबतक जीवको सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता और उसका कल्याण नहीं हो सकता। __ समयसारकी १४१ वीं गाथामें कहा है कि-जीवमें कर्म बँधा हुआ है तथा स्पर्शित है ऐसा व्यवहारनयका कथन है। टीका:-xxx जीवमें कर्म बद्धस्पृष्ट है ऐसा व्यवहारनयका पक्ष है x x x जीवमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है ऐसा निश्चयनयका पक्ष है। अब आचार्यदेव कहते हैं किः “किन्तु इससे क्या ? जो आत्मा इन दोनों नयोंको पार कर चुका है, वही समयसार है, इसप्रकार १४२ वीं गाथामें कहते हैं।" [ नोट-गाथा उसकी टीकाके साथ श्री समयसारमें से पढ़कर देखें]
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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