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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला १८६ बन्ध नहीं होता ऐसा मानता है उसके सम्यक्त्व कैसा ? वह व्रत समिति इत्यादिका पालन करे तो भी स्व-परका ज्ञान न होनेसे वह पापी ही है। मुझे बन्ध नहीं होता यों मानकर जो स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है उसके भला सम्यग्दर्शन कैसा ? यदि यहाँ कोई पूछे कि "व्रत-समिति तो शुभ कार्य है, तो फिर व्रत-समितिको पालने पर भी उस जीवको पापी क्यों कहा? समाधान-सिद्धांतमें पाप मिथ्यात्वको ही कहा है। जहाँ तक मिथ्यात्व रहता है वहाँ तक शुभ अशुभ सर्व क्रियाको अध्यात्ममें परमार्थसे पाप ही कहा जाता है। फिर व्यवहार नयकी प्रधानतामें व्यवहारी जीवोंको अशुभंसे छुड़ाकर शुभमें लगानेके लिये शुभ क्रियाको कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है। ऐसा कहने से स्याद्वादमतमें कोई विरोध नहीं है। ४०-२. ये महापाप कैसे टले ? सच्चे देव, गुरु, धर्मके लिये तन, मन, धन सर्वस्व समर्पित करे, शिरच्छेद होने पर भी कुगुरु कुदेव-कुधर्मको न माने, कोई शरीरको जलादे तो भी मनमें क्रोध न करे और परिग्रहमें वस्त्रका एक तार भी न रखे तथापि आत्माकी.पहिचानके बिना जीवकी- दृष्टि परके ऊपर और शुभ राग पर रह जाती है, इसलिये उसका मिथ्यात्वका महापाप दूर नहीं होता । स्वभावको और रागको उनके निश्चित् लक्षणोंके द्वारा भिन्न २ जान लेना ही सम्यग्दर्शनका यथार्थ कारण है। निमित्तका अनुसरण करने वाला भाव और उपादानको अनुसरण करने वाला भाव-दोनों भिन्न २ हैं। प्रारम्भमें कथित वे सभी भाव निमित्तका अनुसरण करते हैं। निमित्तके बदल जानेसे सम्यग्दर्शन नहीं होता किन्तु निमित्तकी ओरके लक्षको बदल कर उपादानमें लक्ष करे तो सम्यग्दर्शन होता है। निमित्तके लक्षसे बन्ध है और उपादानके लक्षसे मुक्ति । मान
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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