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________________ १८७ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला जीव पर्यायदृष्टि है-पर्यायमूढ़ है, उसके स्वभावदृष्टि नहीं है, और वह मोक्षमार्गके क्रमको नहीं जानता क्योंकि सम्यकश्रद्धाके पहले सम्यग्चारित्र की इच्छा रखता है। "रागरहित स्वभावकी प्रतीति करू तो राग दूर हो" ऐसे अभिप्रायमें द्रव्यदृष्टि और द्रव्यदृष्टिके बलसे पर्यायमें निर्मलता प्रगट होती है। मेरा स्वभाव रागरहित है ऐसे वीतराग अभिप्राय सहित (स्वभावके लक्ष्यसे अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे) जो परिणमन हुआ उसमें प्रतिक्षण राग दूर होता है और अल्पकालमें ही उसका नाश होता है, यह सम्यग्दर्शनकी महिमा है। किन्तु जो पर्यायदृष्टि ही रखकर अपनेको रागयुक्त मानले तो राग किसप्रकार दूर हो। "मैं रागी हूं" ऐसे रागीपनके अभिप्राय से ( विकारके लक्ष्यसे, पर्यायदृष्टिसे ) जो परिणमन होता है, उसमें रागकी उत्पत्ति हुआ करती है किन्तु राग दूर नही होता। इससे पर्यायमें राग होने पर भी उसी समय पर्याय दृष्टिको छोड़कर स्वभावदृष्टि से रागरहित चैतन्य स्वभावकी श्रद्धा करना आचार्य भगवान बतलाते है और यही मोक्षमार्गका क्रम है। आत्मार्थीका यह प्रथम कर्तव्य है कि यदि पर्यायमें राग दूर न हो सके तो भी "मेरा स्वरूप रागरहित है ऐसी श्रद्धा अवश्य करना चाहिये।" आचार्यदेव कहते हैं कि यदि तुझसे चारित्र नहीं हो सकता तो श्रद्धामें टालमटोल मत करना । अपने स्वभावको अन्यथा नही मानना। __ हे जीव ! तू अपने स्वभावको स्वीकार कर, स्वभाव जैसा है उसे वैसा ही मान । जिसने पूर्ण स्वभावको स्वीकार करके सम्यग्दर्शनको टिका रखा है वह जीव अल्पकालमें ही स्वभावके बलसे ही स्थिरता प्रगट करके मुक्त हो जायगा। मुख्यतः पंचमकालके जीवोंसे आचार्यदेव कहते हैं कि-इस दग्ध पंचमकालमें तुम शक्ति रहित हो किन्तु तब भी केवल शुद्धात्मस्वरूप का श्रद्धान तो अवश्य करना । इस पंचमकालमें साक्षात् मुक्ति नहीं है, किन्तु भवभयको नाश करनेवाला जो अपना स्वभाव है उसकी श्रद्धा करना, यह
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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