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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला -१८१ (३७) पुनीत सम्यग्दर्शन "आत्मा है, परसे भिन्न है, पुण्य-पाप रहित ज्ञाता ही है” इतना मात्र जान लेनेसे सम्यकदृष्टित्व नहीं हो सकता, क्योंकि इतना तो अनन्त संसारी जीव भी जानते है । जानना तो ज्ञानके विकासका कार्य है, उसके साथ परमार्थसे सम्यग्दर्शनका सम्बन्ध नहीं है। ___ मैं आत्मा हूँ और परसे भिन्न हूँ-इतना मात्र मान लेना यथार्थ नहीं है, क्योंकि आत्मामें मात्र अस्तित्व ही नही है, और मात्र ज्ञातृत्व ही नहीं है, परन्तु आत्मामें ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, सुख, वीर्य, इत्यादि अनन्त गुण हैं । उस अनन्त गुण स्वरूप आत्माके स्वानुभवके द्वारा जब तक आत्मसंतोष न हो तब तक सम्यकदृष्टित्व नहीं होता। नव तत्वोंके ज्ञान तथा पुण्य-पापसे आत्मा भिन्न है, ऐसा जो ज्ञान है सो सबका प्रयोजनभूत स्वानुभव ही है। स्वानुभवकी गन्ध भी न हो, और मात्र विकल्पके द्वारा ज्ञानमें जो कुछ जाना है उतने ज्ञातृत्वमें ही संतोष मानकर अपनेको स्वयं ही सम्यकदृष्टि माने तो उस मान्यता सम्पूर्ण परम आत्मस्वभावका अनादर है! विकल्परूप ज्ञातृत्वसे अधिक कुछ भी न होने पर भी जो जीव अपने में सम्यकदृष्टित्व मान लेता है उस जीवको परम कल्याणकारी सम्यकदर्शनके स्वरूपकी ही खबर नहीं है। सम्यक्दर्शन अभूतपूर्व वस्तु है, वह ऐसी मुफ्तकी चीज नहीं है कि जो विकल्पके द्वारा प्राप्त हो जावे, किन्तु परम पवित्र स्वभावके साथ परिपूर्ण सम्बन्ध रखनेवाला सम्यक्दर्शन विकल्पोंसे परे, सहन स्वभावके स्वानुभव प्रत्यक्षसे प्राप्त होता है। जब तक सहज स्वभावका स्वानुभव स्वभावकी साक्षीसे प्राप्त नहीं होता तब तक उसीमें संतोष न मानकर सम्यकदर्शनकी प्राप्तिके परम उपायमें निरन्तर जागृत रहना चाहिये-यह निकट भव्यात्माओंका कर्तव्य है। परन्तु 'मुझे तो सम्यग्दर्शन प्राप्त हो चुका है, अब मात्र चारित्रमोह रह गया है। ऐसा मानकर, बैठे रहकर पुरुषार्थ हीनता का-शुष्कताका सेवन नहीं करना चाहिये । यदि जीव ऐसा करेगा तो स्व
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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