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________________ १७२ * सम्यग्दर्शन ही जाननेसे विकल्प रहित निर्विकल्प आनन्दका अनुभव होता है, वही निर्विकल्प आत्म-समाधि है; वही आत्म साक्षात्कार है; वही स्वानुभव है। वही भगवानके दर्शन हैं, वही सम्यकदर्शन है । जो कहो वह यही है । यही धर्म है। जिसप्रकार डोरा पिरोयी हुई सुई खोती नहीं है, उसीप्रकार यदि आत्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानरूपी डोरा पिरो ले तो वह संसारमें परिभ्रमण न करे। (२१) प्रथम, अरिहन्त जैसे अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको जानकर अरिहन्तका लक्ष छोड़कर आत्माकी ओर उन्मुख हुआ। अब, अन्तरमें द्रव्यगुण-पर्यायके विकल्प छोड़कर एक चेतन स्वभावको लक्षमें लेकर एकाग्र होने से आत्मामें मोहक्षयके लिये कैसी क्रिया होती है-वह कहते हैं । गुणपर्यायको द्रव्यमे ही अभेद करके अन्तरोन्मुख हुआ वहाँ उत्तरोत्तर-प्रतिक्षण कर्ता-कर्म-क्रियाके भेदका क्षय होता जाता है और जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है। अन्तरोन्मुख हुया वहाँ मैं करता हूँ, और आत्माकी श्रद्धा करनेकी ओर ढलता हूँ-ऐसा भेदका विकल्प नहीं रहता। 'मैं कर्ता हूँ और पर्याय कर्म है, मैं पुण्य-पापका कर्ता नहीं हूँ और स्वभाव-पर्यायका कर्ता हूँ, पर्यायको अन्तरमें एकाग्र करनेकी क्रिया करता हूँ, मेरी पर्याय अन्तर में एकाग्र होती जा रही है।--इसप्रकारके कर्ता, कर्म और क्रियाके विभागोंक विकल्प नाश हो जाते हैं। .विकल्परूप क्रिया न रहनेसे वह जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है। जो पर्याय द्रव्योन्मुख होकर एकाग्र हुई उस पर्यायको मैंने उन्मुख किया है।--ऐसा कर्ता-कर्मके विभागका विकल्प अनुभवके समय नहीं होता। नव अकेले चिन्मात्रभाव आत्माका अनुभव रह जाता है उसी क्षण मोह निराश्रय होता हुआ नाशको प्राप्त होता है। यही अपूर्व सम्यग्दर्शन है। जव सम्यग्दर्शन हो उस समय-मैं पर्यायको अन्तरोन्मुस करता हूँ'-ऐसा विकल्प नहीं होता। मैं पर्यायको द्रव्योन्मुख फाँ' यया तो इस वर्तमान अंशको त्रिकालमें अभेद करूँ-ऐसा विकल्प रहे तो पर्याय दृष्टिना
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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