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________________ १६२ - सम्यग्दर्शन श्रात्मा था और इस समय अरिहन्त दशामें भी वही आत्मा है; - इस प्रकार आत्मा त्रिकाल रहता है वह द्रव्य है, आत्मामें ज्ञानादि अनन्त गुण एक साथ विद्यमान हैं वह गुण है, और अरिहन्तको अनंत केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य प्रगट हुये हैं वह उनकी पर्याय है, उनके राग-द्वेष या अपूर्णता किंचित् भी नहीं रहे है । इसप्रकार अरिहन्त भगवानके द्रव्य-गुण- पर्यायको जो जीव जानता है वह अपने आत्माको भी वैसा ही जानता है, क्योंकि यह आत्मा भी अरिहन्तकी ही जातिका है, जैसा अरिहन्तके आत्माका स्वभाव है वैसा ही इस आत्माका स्वभाव है; निश्चयसे उसमें कुछ भी अन्तर नहीं है । इससे पहले अरिहन्तके श्रात्माको जानने से अरिहन्त समान अपने आत्माको भी जीव मन द्वारा - विकल्प से जान लेता है, और फिर अन्तरोन्मुख होकर गुण-पर्यायों से अभेदरूप एक आत्मस्वभावका अनुभव करता है तब द्रव्य-पर्यायकी एकता होने से वह जीव चिन्मात्र भावको प्राप्त करता है, उस समय मोहका कोई आश्रय न रहने से वह अवश्य ही नष्ट हो जाता है और जीवको सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, वह अपूर्व है । सम्यग्दर्शनके बिना तीनकालमें धर्म नहीं होता । ( ५ ) जैसा अरिहन्त भगवानका श्रात्मा है वैसा ही यह आत्मा है । उसमें जो चेतन है वह द्रव्य है; चेतन अर्थात् आत्मा है वह द्रव्य है । चैतन्य उसका गुण है । चैतन्य अर्थात् ज्ञान-दर्शन, वह आत्माका गुण हैं । और उस चैतन्यकी ग्रंथियाँ अर्थात् ज्ञान-दर्शनकी अवस्थाएँ - ज्ञान-दर्शनका परिणमन वह आत्माकी पर्यायें हैं। इसके अतिरिक्त कोई रागादि भाव या शरीर-मन-वाणीकी क्रियाएँ वे वास्तवमें चैतन्यका परिणमन नहीं हैं इससे वे आत्माकी पर्यायें नहीं हैं, आत्माका स्वरूप नहीं हैं। जिस भवानी को अरिहन्त जैसे अपने द्रव्य-गुण-पर्यायकी खबर नहीं है यह गावियो और शरीरादिकी क्रियाको अपना मानता है । "मैं तो चैतन्य द्रव्य, चैतन्य गुण है और मुममें प्रतिक्षण चैतन्यकी अवस्था होती हैस्वरूप है; इसके अतिरिक्त जो रागादि भाव होते हैं वह मेरा सभा मेरा परप
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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