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________________ = सम्यग्दर्शन ( १ ) चैतन्यके विलासरूप श्रानन्दको जरा पृथक् करके देख, उस आनन्दके भीतर देखने पर तू शरीरादिके मोहको तत्काल छोड़ सकेगा । 'झगिति' अर्थात् झट से छोड़ सकेगा, यह बात सरल है क्योंकि यह तेरे स्वभावकी वात है । ४ (२) सातवें नरककी अनन्त वेदनामें पड़े हुओंने भी आत्मानुभव प्राप्त किया है तब यहां पर सातवें नरकके बराबर तो पीड़ा नहीं है । मनुष्य भव प्राप्त करके रोना क्या रोया करता है । अब सत्समागमसे आत्माकी पहिचान करके आत्मानुभव कर । इस प्रकार समयसार प्रवचनों में बारंबार — हजारोंबार आत्मानुभव करने की प्रेरणा की है जैनशास्त्रोंका ध्येयबिन्दु ही आत्मस्वरूपकी पहिचान कराना है । जब अनुभव प्रकाशप्रत्थमें आत्मानुभवकी प्रेरणा करते हुये कहा है कि कोई यह जाने कि आज के समयमें स्वरूपकी प्राप्ति कठिन है तो समझना चाहिये कि वह स्वरूपकी चाहको मिटानेवाला वहिरात्मा है वह निठल्ला होता है तब विकथा करने लगता है । यदि वह तब स्वरूपकी प्रेरणा अनुभव करे तो उसे कौन रोक सकता है । यह कितने आश्चर्यकी बात है कि वह पर परिणामको तो सुर.म और निजपरिणामको विपम बताता है । स्त्रय देखता है जानता है तथापि यह कहते हुये लज्जा न आती कि देखा नहीं जाता, जाना नही जाता जिसका जयगान भव्य जीव गाते है जिसकी अपार महिमाको जानने से महा भव भ्रमण दूर होता है ऐसा यह समयसार ( आत्मस्वरूप ) श्रविकार जान लेना चाहिये । ..... यह जीन अनादि काल से अज्ञानके कारण परद्रव्यको अपना करनेके लिये प्रयत्न कर रहा है और शरीरादिको अपना बनाकर रखना चाहता है किन्तु पर द्रव्य का परिणमन जीवके आधीन नहीं है इसलिये अनादिसं जीवके परिश्नम के फलमें अज्ञात हुआ लेकिन एक परमाणु भी जीवका नहीं हुआ । अनादिकाजने देह दृष्टि पूर्वक शरीरको अपना मान रक्खा है किन्तु अभी तक एक भी रजकरण न तो जीवका हुआ है और न
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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