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________________ १४६ -* सम्यग्दर्शन मोटर चाहे जहाँतक भीतर ले जाय किन्तु अन्तमें तो मोटरसे उतरकर स्वयं ही भीतर जाना पड़ता है, इसीप्रकार नयपक्षके विकल्पोंवाली मोटर चाहे जितनी दौड़ाये 'मैं ज्ञायक हूँ, अभेद हूँ, शुद्ध हूँ ऐसे विकल्प करे तो भी स्वरूपके आंगन तक ही जाया जा सकता है किंतु स्वरूपानुभव करते समय तो वे सब विकल्प छोड़ देने ही पड़ते हैं । विकल्प रखकर स्वरूपानुभव नहीं हो सकता। नय पक्षका ज्ञान उस स्वरूपके आंगनमें आनेके लिये आवश्यक है। "मैं स्वाधीन ज्ञान स्वरूपी आत्मा हूँ, कर्म जड़ है, जड़ कर्म मेरे स्वरूपको नहीं रोक सकते, मैं विकार करू' तो कर्मोंको निमित्त कहा जा सकता है, किन्तु कर्म मुझे विकार नहीं कराते क्योंकि दोनों द्रव्य भिन्न हैं। वे कोई एक दूसरेका कुछ नहीं करते, मैं जड़का कुछ नहीं करता और जड़ मेरा कुछ नहीं करता, जोराग-द्वेष होता है उसे कर्मनहीं कराता तथा वह पर वस्तुमें नहीं होता किंतु मेरी अवस्थामें होता है, वह रागद्वेप मेरा स्वभाव नहीं है, निश्चयसे मेरा स्वभाव रागरहित ज्ञान स्वरूप है" इसप्रकार सभी पहलुओं का (नयोंका) ज्ञान पहले करना चाहिये किंतु जबतक इतना करता है तवतक भी भेदका लक्ष्य है। भेदके लक्ष्यसे अभेद आत्मस्वरूपका अनुभव नहीं हो सकता तथापि पहले उन भेदोंको जानना चाहिये, जव इतना जानले तव समझना चाहिये कि वह स्वरूपके आंगन तक आया है वादमें जव अभेदका लक्ष्य करता है तब भेदका लक्ष्य छूट जाता है औरस्वरूपका अनुभव होता है अर्थात् अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। इसप्रकार यद्यपि स्वरूपोन्मुख होने से पूर्व नयपक्षके विचार होते तो हैं परन्तु वे नयपक्षके कोई भी विचार स्वरूपानुभव में सहायक तक नहीं होते। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सम्बन्ध किसके साथ है ? सम्यग्दर्शन निर्विकल्प सामान्य गुण है उसका मात्र निश्चयअखण्ड स्वभावके साथ ही संबंध है अखंड द्रव्य जो भंग-भेद रहिन है यही सम्यग्दर्शनको मान्य है। सम्यग्दर्शन पर्यायको स्वीकार नहीं करता किन्तु
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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