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________________ १३८ -* सम्यग्दर्शन प्रकारके बाह्य निमित्त स्वतः ही दूर हो जाते हैं। बाह्य निमित्तोंके दूर होजाने का फल आत्माको नहीं मिलता, किन्तु भीतर जो राग भाव का त्याग किया उस त्यागका फल आत्माको मिलता है। इससे स्पष्टतया यह निश्चय होता है कि सर्व प्रथम 'कोई पर द्रव्य मेरा नहीं है और मैं किसी परद्रव्यका कर्ता नहीं हूँ इसप्रकार दृष्टिम (अभिप्रायमें, मान्यतामें) सर्व परद्रव्यके स्वामित्वका त्याग हो जाना चाहिये जब ऐसी दृष्टि होती है तभी त्यागका प्रारम्भ होता है अर्थान सर्व प्रथम मिथ्यात्वका ही त्याग होता है। जब तक ऐसी दृष्टि नहीं होती और मिथ्यात्वका त्याग नहीं होता तवतक किंचित् मात्र भी सच्चा त्याग नहीं होता और सच्ची दृष्टि पूर्वक मिथ्यात्वका त्याग करनेके वाद क्रमशः ज्यों ज्यों स्वरूपकी स्थिरताके द्वारा रागका त्याग करता है त्यों त्यों उसके अनुसार वाह्य संयोग स्वयं छूटते जाते है परद्रव्य पर आत्माका पुरुषार्थ नहीं चलता इसलिये परद्रव्यका ग्रहण-त्याग श्रात्माके नहीं है किन्तु अपने भाव पर अपना पुरुषार्थ चल सकता है और अपने भावका हो फल आत्माको है। ज्ञानी कहते है कि सर्व प्रथम पुरुपार्थके द्वारा यथार्थ ज्ञान करके मिथ्यात्व भावको छोड़ो यही मोक्षका कारण है। 000000000000000000000000 अमृत पान करो ! 8 श्री आचार्यदेव कहते हैं कि हे भव्य जीवों ! तुम इम सम्य0 ग्दर्शनरूपी अमृतको पियो । यहसन्यग्दर्शन अनुपम सुबका भंटार है-सर्व कल्याणका वीज है और मंमार समुद्रमे पार उतरनेके लिये जहाज है, एक मात्र मव्य जीव ही उने प्रान कर मरने हैं। पापरूपीवृक्षको काटनके लिये यह शुल्हादी ममान पवित्र ० ® तीर्थो में यही एक पवित्र तीर्थ है और मिध्यात्यका नाराह है। [मानार्णव सोर ०००००००००००००००००००००००० 00000000000000 00000000
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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