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________________ १३६ - सम्यग्दर्शन अन्तकी श्रद्धाके बिना कदाचित् पुण्य करे तो उसका फल रानपद अथवा इन्द्रपद हो सकता है परन्तु उससे आत्माको क्या लाभ है ? आत्माकीप्रति के बिना यह पुण्य और यह इन्द्रपद सव व्यर्थ ही हैं, उसमें आत्म शांतिका अंश भी नहीं है इसलिये पहले श्रुतज्ञानके द्वारा ज्ञान स्वभावका दृढ़ निश्चय करनेपर प्रतीतिमें भवकी शंका ही नहीं रहती और जितनी ज्ञानकी दृढ़ता होती है उतनीशान्ति बढ़ती जाती है।। भाई । तू कैसा है, तेरी प्रभुताकी महिमा कैसी है इसे तूने नहीं जाना । तू अपनी प्रभुताकी भानके विना वाहर जिस तिसके गीत गाया करे तो इससे तुझे अपनी प्रभुताका लाभ नहीं होगा। परके गीत तो गाये परंतु अपने गीत नही गाये । भगवानकी प्रतिमाके समक्ष कह कि 'हे नाय ! हे भगवान ! आप अनन्त ज्ञानके धनी हो, वहाँ सामनेसे भी यही प्रति ध्वनि हो,कि हे नाथ । हे भगवान ! आप अनन्त ज्ञानके धनीहो तभी तो अन्तरंगमें पहचान करके अपनेको समझेगा। बिना पहिचानके अंतरंगमें सच्ची प्रतिध्वनि जागृत नहीं हो सकती। शुद्धात्मस्वरूपका संवेदन कहो, ज्ञान कहो, श्रद्धा कहो, चारित्र कहो, अनुभव कहो या साक्षात्कार कहो-जो भी कहो एक आत्मा ही है। अधिक क्या कहा जाय १ जो कुछ है वह एक आत्मा ही है। उमीलो भिन्न भिन्न नामसे कहा जाता है। केवलीपद, सिद्धपद अथवा साघुपद ग्रह सब एक आत्मामें ही समा जाने हैं। समाधि मरण, आराधना इत्यादि नाम भी स्वरूपकी स्थिरता ही है। इसप्रकार आत्मस्वरूपकी समझ ही मम्प. ग्दर्शन है, और यह सम्यग्दर्शन हो सर्वधर्मका मूल है। सम्यग्दर्शन हो आत्माका धर्म है। २६. एकवार भी जो मिथ्यात्वका त्याग करे तो जरूर मोक्ष पावे । प्रश्न-यह जीव जैनका नामधारी त्यागी माधु जगन्नमारमा फिर भी उसे अभी तक मोरा क्यों नहीं आ
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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