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________________ १३२ सम्यग्दर्शन परन्तु पहले वे परकी ओर झुकते थे, परन्तु अव उन्हें आत्मोन्मुख करते हुये स्वभाव की ओर लक्ष्य होता है । आत्माके स्वभावमें एकाग्र होनेकी यह क्रमिक सीढ़ियों है । ज्ञानमें भव नहीं जिसने मनके अवलम्बनसे प्रवर्तमान ज्ञानको मनसे छुड़ाकर अपनी ओर किया है अर्थात् जो मतिज्ञान परकी ओर जाता था उसे मर्यादा में लेकर आत्म सन्मुख किया है उसके ज्ञानमें अनन्त संसारका नास्तिभांव और ज्ञान स्वभावका अस्ति भाव है । ऐसी समझ और ऐसा ज्ञान करनेमें अनन्त पुरुषार्थ है । स्वभावमें भव नहीं है इसलिये जिसके स्वभावकी ओर का पुरुषार्थ जागृत हुआ है उसे भवकी शंका नहीं रहती । जहाँ भवकी शंका है वहाँ सच्चा ज्ञान नहीं है और जहाँ सच्चा ज्ञान है वहाँ भवकी शका नहीं है, इसप्रकार ज्ञान और भवकी एक दूसरे में नास्ति है । पुरुषार्थके द्वारा सत्समागमसे मात्र ज्ञान स्वभावी आत्माका निर्णय किया, पश्चात् मैं अबन्ध हूँ या बन्ध वाला हूँ, शुद्ध हूँ या अशुद्ध हूँ, त्रिकाल हूँ या क्षणिक हूँ इत्यादि जो वृत्तियाँ उठती हैं उनमें भी अभी आन शांति नहीं है । वृत्तियाँ श्राकुलतामय आत्म शांतिकी विरोधिनी हैं । नय पक्षके अवलम्बनसे होने वाले मन सम्वन्धी अनेक प्रकारके जो विकल्प हैं उन्हें भी मर्यादामें लाकर अर्थात् उन विकल्पों को रोकनेके पुरुपार्थके द्वारा श्रुतज्ञान को भी आत्मसन्मुख करने पर शुद्धात्माका अनुभव होता है । इसप्रकार मति और श्रुतज्ञानको आत्म सन्मुख करना ही सम्यग्दर्शन है। इन्द्रिय और मनके अवलम्वन से मतिज्ञान पर लक्ष्य में प्रवृत्ति कर रहा था उसे तथा मनके अवलम्बनसे श्रुतज्ञान अनेक प्रकारके नयपक्षोंके विकल्प अटक जाता था उसे अर्थात् परावलम्बनसे प्रवर्तमान मतिज्ञान और श्रुत ज्ञानको मर्यादामें लाकर - अंतरंग स्वभाव सन्मुख करके उन ज्ञानोंके द्वारा एक ज्ञान स्वभाव को पकड़कर (लक्ष्यमें लेकर ) निर्विकल्प होकर तत्काल
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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