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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला १२६ सधी समझका मार्ग प्रहण करे तो सत्य समझमें आये विना -न रहे । यदि ऐसे मनुष्य शरीरमें और सत्समागमके योगसे भी सत्य समझमें न आये तो फिर सत्यका ऐसा सुयोग नहीं मिलता । जिसे यह खबर नहीं है कि मैं कौन हूँ और यहीं स्वरूप को भूल कर जाता है वह जहाँ जायेगा वहाँ क्या करेगा ? शांति कहाँ से लायेगा ? आत्माकी प्रतीतिके बिना कदाचित शुभ भाव किये हों तो भी उस शुभका फल जड़में जाता है। आत्मामें पुण्यका फल नहीं आता। जिसने आत्माकी परवाह नहीं की और यहीं से जो मूढ़ होगया है उसने यदि शुभभाव किया भी तो रजकणों का बन्ध हुआ और उन रजकणोंके फलमें भी उस रजकणोंका ही संयोग मिलेगा। रजकणोंका संयोग मिला तो उसमें आत्माके लिये क्या है? श्रात्माकी शांति तो आत्मामें है किन्तु उसकी परवाह तो की नहीं। असाध्य कौन हैं और शुद्धात्मा कौन हैं ? यहीं पर जड़का लक्ष्य करके जड़ जैसा होगया है, मरनेसे पूर्व ही अपने को भूलकर संयोग दृष्टिसे मरता है असाध्यभावसे वर्तन करता है इसलिये चैतन्य स्वरूपकी प्रतीति नहीं है। वह जीते जी असाध्य ही है। भले ही शरीर हिले डुले और बोले, किन्तु यह जड़की क्रिया है उसका मालिक हुआ, किन्तु अन्तरंगमें साध्य जो ज्ञानस्वरूप है उसकी जिसे खबर नहीं है, वह असाध्य (जीवित मुर्दा) है। वस्तुका स्वभाव यथार्थतया सम्यग्दर्शन पूर्वक जो ज्ञान है उससे न समझे तो जीवको स्वरूपका किंचित् मात्र भी लाभ नहीं है । सम्यग्दर्शन और ज्ञानसे स्वरूपकी पहिचान और निर्णय करके जो स्थिर हुआ, उसीको 'शुद्ध आत्मा' का नाम प्राप्त होता है और शुद्ध आत्मा ही सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है। मैं शुद्ध हूँ' ऐसा विकल्प छूटकर अकेला आत्मानुभव रह जाय सो यही सम्यग्दर्शन, और सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहीं आत्मासे पृथक नहीं है। जिसे सत्य चाहिये ही ऐसे जिज्ञासु समझदार. जीवको यदि कोई
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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