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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला १२५ किसी परका कुछ करना अथवा पुण्य पापके भाव करना तेग स्वरूप नहीं है। यह सब जो बतलाते हों वे सच्चे देव शास्त्र गुरु हैं और इसप्रकार जो समझता है वही देव शास्त्र गुरुके अवलम्बन से श्रुतज्ञानको समझा है किन्तु जिस रागसे धर्मको मनवाने हों और शरीराश्रित क्रिया आत्मा करता है यह मनवाते हों तथा जो यह कहते हों कि जड़ कर्म आत्माको परेशान करते हों वे सच्चे देव, शास्त्र, गुरु नहीं हो सकते । - जो शरीरादि सर्व परसे भिन्न ज्ञान स्वभावी आत्माका स्वरूप बताते हों और यह बताते हों कि पुण्य-पापका कर्तव्य आत्माका नहीं है वही सच्चा शास्त्र है, वही सच्चे देव हैं और वही सच्चे गुरु हैं। जो पुण्यसे धर्म बतलाते हैं और जो यह बतलाते है कि शरीरकी क्रियाका कर्ता आत्मा है तथा जो रागसे धर्म होना बतलाते हैं वे सब कुगुरु, कुदेव, और कुशास्त्र हैं क्योंकि वे यथावत् वस्तु स्वरूपके ज्ञाता नहीं हैं और वे विपरीत स्वरूप ही बतलाते हैं। जो वस्तु स्वरूप जैसा है वैसा न बताये और किचित् मात्र भी विरुद्ध बताये, वह सच्चा देव, सचा शास्त्र, या सच्चा गुरु नहीं हो सकता। श्रुतज्ञानके अवलम्बनका फल-आत्मानुभव है ___ मैं आत्मा तो ज्ञायक हूँ, पुण्य पापकी वृत्तियां मेरी ज्ञेय हैं, वे मेरे ज्ञानसे भिन्न हैं । इसप्रकार पहले विकल्पके द्वारा देव, गुरु, शास्त्रके अवलंबनसे यथार्थ निर्णय करता है, ज्ञान स्वभावका अनुभव होनेसे पहलेकी यह बात है। जिसने स्वभावके लक्ष्यसे श्रुत अवलम्बन लिया है वह अल्प कालमें ही आत्मानुभव अवश्य करेगा। पहले विकल्पमें यह निश्चय किया. कि मैं परसे भिन्न हूँ, पुण्य पाप भी मेरा स्वरूप नहीं है मेरे शुद्ध स्वभावके अतिरिक्त देव, गुरु, शास्त्रका भी अवलम्बन परमार्थत. नहीं है। मैं तो स्वाधीन ज्ञान स्वभाव वाला हूँ इसप्रकार जिसने निर्णय किया उसे अनुभव हुये बिना कदापि नहीं रह सकता। यहाँ प्रारम्भ ही ऐसे बलपूर्वक किया है कि पीछे हटनेकी बात ही नहीं है।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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