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________________ ११३ - सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शनके उपायके लिये समयसारमें बताई गई क्रिया ___पहले श्रुतज्ञानके अवलंबनसे ज्ञानस्वभावी श्रात्माका निश्चय करके पश्चात् आत्माक्री प्रगट' प्रसिद्धिके लिये परपदार्थकी प्रसिद्धिके कारण जो इन्द्रियोंके द्वारा और मनके द्वारा प्रर्वतमान बुद्धि है उसे मर्यादामें लाकर जिसने मतिज्ञान तत्त्वको आत्मसन्मुख किया है ऐसा, तथा नानाप्रकारके पक्षोंके अवलम्बनसे होने वाले अनेक विकल्पोंके द्वारा आकुलताको उत्पन्न करनेवाली श्रतज्ञान की बुद्धियोंको भी मर्यादामें लाकर श्रतज्ञान तत्वको भी आत्म सन्मुख करता हुआ अत्यन्त विकल्प रहित होकर तत्काल परमात्मारूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता है उस समय ही आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है (अर्थात् श्रद्धा की जाती है) और मालूम होता है इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।' [समयसार गाथा १४४ की टीका ) अब यहाँ पर इसका स्पष्टीकरण किया जाता है। श्रुतज्ञान किसे कहना चाहिये ? 'प्रथम श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे ज्ञान स्वभावी आत्माका निर्णय करना' कहा है। श्रुतज्ञान किसे कहना चाहिये ? सर्वज्ञ भगवानके द्वारा कहा गया श्रुतज्ञान अस्ति नास्तिके द्वारा वस्तु स्वरूप सिद्ध करता है। अनेकान्त स्वरूप वस्तुको 'स्व अपेक्षाते है और पर अपेक्षासे नहीं है' इसप्रकार जो स्वतंत्र सिद्ध करता है वह श्रुतज्ञान है। बाह्यत्याग श्रुतज्ञानका लक्षण नहीं है परवस्तुको छोड़नेके लिये कहे अथवा परके ऊपरके रागको फग करनेके लिये कहे इसप्रकार भगवानके द्वारा कहा गया अतमानका लक्षण नहीं है। एक वस्तु अपनी अपेक्षासे है और यह वस्तु अनन्त पर हव्योम पृथक है इसप्रकार अस्ति नास्तिरूप परस्पर विद्ध दो शक्तियांको प्रकाशित करके जो वस्तुस्वरुपको बतलाना है वह अनेकान्त है और यदी अनशनमा
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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