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________________ ११२ -* सम्यग्दर्शन के प्रति सच्ची प्रीति उत्पन्न नहीं होती। और देव गुरु धर्म की प्रीतिके बिना आत्माकी पहचान नहीं हो सकती । देव गुरु शास्त्रकी भक्ति और अर्पणता के विना आये तीन लोक और त्रिकालमें भी आत्मामें प्रामाणिकता उत्पन्न नहीं हो सकती और न आत्मामें निजके लिये ही समर्पण की भावना उत्पन्न हो सकती है। तू एक बार गुरु चरणोंमें अर्पित हो जा ! पश्चान् गुरुही तुझे अपने में समा जानेकी आज्ञा देंगे । एकवार तो तू सत्की शरण में मुक जा, और यही स्वीकार कर कि उसकी हॉ ही हॉ है और ना ही ना ! तुझमें सत की अर्पणता आने के बाद सन्त कहेंगे कि तू परिपूर्ण है, अब तुझे मेरी आवश्यकता नहीं है, तू स्वयं ही अपनी ओर देख; यही आज्ञा है और यही धर्म है। एकबार सत्-चरणमें समर्पित हो जा। सच्चे देव गुरुके प्रति समर्पित हुए बिना आत्माका उद्धार नहीं हो सकता-कितु यदि उसीका आश्रय मानकर बैठ जाय तो भी पराश्रय होनेके कारण आत्माका उद्धार नहीं होगा। इस प्रकार परमार्थ स्वरूपमें तो भगवान आत्मा अकेला ही है, परन्तु वह परमार्थ स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता तब तक पहले देव गुरु शास्त्रको स्वत्वरूपके ऑगनमें विराजमान करना, यह व्यवहार है। देव गुरु शास्त्रकी भक्ति-पूजाके बिना केवल निश्चयकी मात्र बातें करनेवाला शुष्कज्ञानी है। देव गुरु धर्मको तेरी भक्तिकी आवश्यकता नहीं है, किन्तु जिज्ञासु जीवोंको साधक दशामें अशुभ रागसे बचनेके लिये सत्के प्रति वहुमान उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता । श्रीमद् राजचन्द्रने कहा है कि-"यद्यपि ज्ञानी भक्ति नहीं चाहते, फिर भी वैसा किये विना मुमुक्षु जीवोंका कल्याण नहीं हो सकता। सन्तोंके हृदयमें निवास करनेवाला यह गुप्त रहस्य यहां खोल कर रख दिया गया है।" सत्के जिज्ञासुको सत् निमित् रूप सत् पुरुषकी भक्तिका उल्लास आये बिना रह नहीं सकता।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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