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________________ १०४ -* सम्यग्दर्शन (१६) प्रभु, तेरी प्रभुता ! । हे जीव ! हे प्रभु ! तू कौन है ? इसका कभी विचार किया है ? तेरा स्थान कौनसा है और तेरा कार्य क्या है, इसकी भी खबर है ? प्रमु, विचार तो कर तू कहाँ है और यह सब क्या है, तुझे शांति क्यों नहीं है ? प्रभु ! तू सिद्ध है, स्वतन्त्र है, परिपूर्ण है, वीतराग है, किन्तु तुझे अपने स्वरूपकी खबर नहीं है इसीलिये तुझे शांति नहीं है । भाई, वारतवमें तू घर भूला है, मार्ग भूल गया है । दूसरेके घरको तू अपना निवास मान बैठा है किन्तु ऐसे अशांतिका अन्त नहीं होगा। • भगवान ! शांति तो तेरे अपने घरमें ही भरी हुई है। भाई ! एक बार सव ओरसे अपना लक्ष हटाकर निज घरमें तो देख । तू प्रभु है, तू सिद्ध है । प्रभु, तू अपने निज घरमें देख, परमें मत देख। परमें लक्ष्य कर करके तो तू अनादिकालसे भ्रमण कर रहा है। अव तू अपने अंतरस्वरूप की ओर तो दृष्टि डाल । एकवार तो भीतर देख। भीतर परम आनन्दका अनन्त भण्डार भरा हुआ है उसे तनिक सम्हाल तो देख। एकवार भीतर को झांक, तुझे अपने स्वभावका कोई अपूर्व, परम, सहन, सुख अनुभव होगा। - अनन्त ज्ञानियोंने कहा है कि तू प्रभु है, प्रभु ! तू अपने प्रभुत्वको एकबार हां तो कह। -श्री कानजी स्वामी २००००००००००००००००००००००० 2 . सम्यक्त्व सिद्धि:सुखका दाता है ! प्रज्ञा, मैत्री, समता, करण तथा क्षमा-मन सयका सेवन यदि सम्यक्त्व सहित किया जाये तो वह सिद्धिमुखको २ देने वाला है। [सार समुच्चय ] 8 100000000000000000000000
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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