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________________ -* सम्यग्दर्शन (१७) अरे भव्य ! तू तत्त्वका कौतूहली होकर आत्माका ____ अनुभव कर ! अयि कथमपि मृत्वा तत्वकौतूहली सन् , अनुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्चम् । पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन, त्वजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ।। (समयसार कलश-२३) श्री आचार्यदेव कोमल सम्बोधनसे कहते हैं कि हे भाई । तू किसी भी प्रकार महाकष्टसे अथवा मरकरभी तत्त्वका कौतूहली होकर इन शरीरादि मूर्त द्रव्योंका एक मुहूर्त ( दो घड़ी) पड़ौसी होकर आत्माका अनुभव कर, कि जिससे अपने आत्माको विलास रूप सर्व पर द्रव्योंसे पृथक् देखकर इन शरीरादि मूर्तिक पुद्गल द्रव्योंके साथ एकत्वके मोहको तू तुरंतही छोड़ देगा। मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वका नाश कैसे हो ? तथा अनादि कालीन विपरीत मान्यता और पाप कैसे दूर हों ? उसका उपाय बतलाते हैं। ___ आचार्यदेव तीव्र संबोधन करके नहीं कहते हैं, किन्तु कोमल संबोधन करके कहते हैं कि हे भाई। यह तुमे शोभा देता है ? कोमल संबोधन करके जागृत करते हैं कि तू किसी भी प्रकार महाकप्टसे अथवा मरकर भी-मरण जितने कष्ट आयें तो भी, वह सब सहन करके तत्वका कौतूहली हो। जिसप्रकार कुयमें कुश मारकर ताग लाते हैं उसीप्रकार ज्ञानसे भरे हुए चैतन्य कुएँमें पुरुषार्थ रूपी गहरा कुश मारकर ताग लाओ, विस्मयता लाओ, दुनियां की दरकार छोड़ । दुनियां एकवार तुझे पागल कहेगी, भूत भी कहेगी। दुनियांकी अनेक प्रकारको प्रतिकूलता आये तथापि उसे सहन फरके, उसकी उपेक्षा करके चैतन्य भगवान कैसा है उसे देखनेका एकवार
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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