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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला ६३ होता है। जब भेदकी ओर झुक रहा था तब अभेद चैतन्य स्वभावका आश्रय न होनेसे चैतन्य प्रकाश प्रगट नहीं था और अज्ञान आश्रयसे मोहान्धकार बना हुआ था, अब अभेद चैतन्यके आश्रयमें पर्याय ढल गई है और सम्यग्ज्ञानका प्रकाश प्रगट होगया है तब फिर मोह किसके आश्रय से रहेगा ? मोहका आश्रय तो अज्ञान था जिसका नाश हो चुका है, और स्वभाव के आश्रयसे मोह रह नहीं सकता इसलिये वह अवश्य क्षयको प्राप्त हो जाता है। जब पर्यायका लक्ष परमें था तब उस पर्याय में भेद था और उस भेद का मोह को आश्रय था किन्तु जब वह पर्याय निज लक्षकी ओर गई तब वह अभिन्न होगई और अभेद होने पर मोहको कोई आश्रय न रहा इसलिये वह निराश्रित मोह अवश्य क्षयको प्राप्त होता है। ___ श्रद्धा रूपी सामायिक और प्रतिक्रमण ' यहाँ सम्यग्दर्शनको प्रगट करनेका उपाय बताया जारहा है। सम्यग्दर्शनके होने पर ऐसी प्रतीति होती है कि पुण्य और पाप दोनों पर लक्षसे-भेदके आश्रयसे है, अभेदके आश्रयसे पुण्य-पाप नहीं हैं इसलिये पुण्य-पाप मेरा स्वरूप नहीं है, दोनों विकार है, यह जानकर पुण्य और पाप-दोनोंमें समभाव होजाता है, यही श्रद्धारूपी सामायिक है। पुण्य अच्छा है और पाप बुरा है यह मानकर जो पुण्यको आदरणीय मानता है उसके भावमें पुण्य-पापके बीच विपम भाव है, उसके सच्ची श्रद्धारूपी सामायिक नहीं है । सच्ची श्रद्धाके होने पर मिथ्यात्व भावसे हट जाना ही सर्व प्रथम प्रतिक्रमण है। सबसे बड़ा दोष मिथ्यात्व है और सबसे पहिले उस महा दोषसे ही प्रतिक्रमण होता है। मिथ्यात्वसे प्रतिक्रमण किये बिना किसी जीवके यथार्थ प्रतिक्रमण आदि कुछ नहीं होता। ___ सम्यग्दर्शन और व्रत-महाव्रत जब तक अरिहन्तके द्रव्य, गुण, पर्यायका लक्ष था तब तक भेद था, जब द्रव्य, गुण, पर्यायके भेदको छोड़कर अभेद स्वभावकी ओर मुका _ और वहाँ एकाग्रता की तब स्वभावको अन्यथा माननेरूप मोह नहीं रहता
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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