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________________ १६७ पथ और पाथेय | ऐसी नजीर पेशकर हम अपने आपको भुला सकते हैं, पर विधातार्काी आखाँमें धूल नहीं झोंक सकते । जातिभिन्नत्वके रहते हुए भी स्वराज्य चलाया जा सकता है या नहीं, वास्तव में यही मुख्य प्रश्न नहीं है । विभिन्नता तो किसी न किसी रूपमें सभी जगह है, जिस परिवार में दस आदमी हैं वहाँ इस विभिन्नताएँ हैं । मुख्य प्रश्न यह है कि विभिन्नताके भीतर एकताका तत्त्व काम कर रहा है या नहीं | सैकड़ों जातियों के होते हुए भी यदि स्विटजरलैण्ड एक हो सका तो मानना पड़ेगा कि एकत्वने वहाँ भिन्नत्वपर विजय प्राप्त कर ली है । वहाँके समाजमें भिन्नत्वके रहते हुए प्रबल ऐक्य धर्म भी है । हमारे देशमें विभिन्नता तो वैसी ही है; पर ऐक्य धर्म के अभाव से वह विश्लिष्टनामें परिवर्तित हो गई हैं और भाषा, जाति, धर्म, समाज और लोकाचार में नाना रूप और आकारों में प्रकट होकर इस बृहत् देशके उसने छोटे बड़े हजारों टुकड़े कर रक्खे हैं । अतएव उक्त दृष्टान्त देखकर निश्चिन्त हो बैठनेका तो कोई कारण नहीं देख पड़ता । आँख मूँदकर यह मंत्र रहनेसे धर्म या न्यायके देवताके यहाँ हमारी मुनवाई न होगी कि हमारा और सब कुछ ठीक हो गया हैं, बस अब किसी प्रकार अँगरेजोंसे गला छुड़ाते ही बंगाली, पंजाबी, मराठे, मदरासी, हिन्दू, मुसलमान सब एक मन, एक प्राण, एक स्वार्थ हो स्वाधीन हो जायँगे । वास्तवमें आज भारतवर्ष में जितनी एकता दिखाई पड़ती है और जिसे देखकर हम सिद्धिलाभको सामने खड़ा समझ रहे हैं वह यांत्रिक है, जैविक नहीं । भारतकी विभिन्न जातियों में यह एकता जीवनधर्मकी प्रेरणासे नहीं प्रकट हुई है, किन्तु एक ही विदेशी शासनरूपी रस्सीने हमें बाहरसे बाँधकर एकत्र कर दिया है ।
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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