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________________ राजा और प्रजा । १५० विभिन्नता और वैचित्र्यको बहुत बड़े समन्वयके द्वारा बाँधकर विरोधमें ही मिलनके आदर्शको विजय दिलानेका इतना सुस्पष्ट आदेश जगतमें और कहीं ध्वनित नहीं हुआ । अन्य सब देशोंक लोग राज्यविस्तार करें, पण्यविस्तार करें, प्रतापविस्तार करें और भारतवर्षके मनुष्य दुस्सह तपस्या द्वारा ज्ञान, प्रेम और कर्मसे समस्त अनैक्य और सम्पूर्ण विरोधमें उसी एक ब्रह्मको स्वीकारकर मानवकर्मशालाकी कठोर संकीर्णतामें मुक्तिकी उदार, निर्मल ज्योति फैलाते रहें--बस भारतके इतिहासमें आरम्भसे ही हम लोगोंके लिये यही अनुशासन मिल रहा है। गोरे और काले, मुसलमान और ईसाई, पूर्व और पश्चिम कोई हमारे विरुद्ध नहीं हैं-भारतके पुण्यक्षेत्रमें ही सम्पूर्ण विरोध एक होनेके लिये सैकड़ों शताब्दियोंतक अति कठोर साधना करेंगे। इसीलिए अति प्राचीन कालमें यहाँके तपोवनोंमें उपनिषदोंने एकका तत्त्व इस प्रकार आश्चर्यजनक सरल ज्ञानके साथ समझाया था कि इतिहास अनेक रीतियोंसे उसकी व्याख्या करते करते थक गया और आज भी उसका अन्त नहीं मिला। इसीसे हम अनुरोध करते हैं कि अन्य देशोंके मनुष्यत्वके आंशिक विकाशके दृष्टान्तोंको सामने रखकर भारतवर्पके इतिहासको संकीर्ण करके मत देखिए-इसमें जो बहुतसे तात्कालिक विरोध दिखाई पड़ रहे हैं उन्हें देख हताश होकर किसी क्षुद्र चेष्टामें अन्ध भावसे अपने आपको मत लगाइए । ऐसी चेप्टामें किसी प्रकार कृतकार्यता न होगी, इसको निश्चित जानिए । विधाताकी इच्छाके साथ अपनी इच्छा भी सम्मिलित कर देना ही सफलताका एक मात्र उपाय है। यदि उसके साथ विद्रोह किया जायगा तो क्षणिक कार्यसिद्धि हमें भुलावा देकर भयंकर विफलताकी खाड़ीमें डुबा मारेगी।
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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