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________________ राजा और प्रजा। हम समझते हैं कि इसी सौभाग्य-गर्वसे ही हमारा सबसे अधिक सर्वनाश होगा, हम एकान्तमें बैठकर अपने कर्तव्यका पालन न कर सकेंगे। हमारा मन सदा साशंक और चंचल रहेगा और अपने दरिद्र सम्बन्धियोंका अप्रसिद्ध घर हमें बहुत अधिक सूना जान पड़ेगा। जिन लोगोंके लिये अपने प्राण दे देना हमारा कर्तव्य है उन लोगोंके. साथ आत्मीयके समान व्यवहार करनेमें हमें लजा जान पड़ेगी। अँगरेज लोग अपने आमोद-प्रमोद, आहार-विहार, आसंग-प्रसंग, बन्धुत्व और प्रेमसे हम लोगोंको बिलकुल बहिष्कृत करके हमारे लिये द्वार बन्द रखना चाहते हैं तो भी यदि हम लोग झुककर, दबकर, कलसे, बलसे, छलसे उस द्वारमें प्रवेश करनेका थोड़ासा अधिकार पा जाते हैं, राजसमाजसे हमारा यदि बहुत ही थोड़ा सम्बन्ध हो जाता है, हम उसकी केवल गंध भी पा जाते हैं तो हम लोग इतने कृतार्थ हो जाते हैं कि उस गौरवके सामने हमें अपने देशवासियोंकी आत्मीयता बिलकुल तुच्छ जान पड़ती है । ऐमे अवसरपर, ऐसी दुर्बल मानसिक अवस्थामें उस सर्वनाशी अनुग्रह मद्यको हमें बिलकुल अपेय और अस्पृश्य समझना चाहिए और उसका सर्वथा परिहार करना चाहिए। __ इसका एक और भी कारण है। अँगरेजोंके अनुग्रहको केवल गौरव समझकर हमारे लिये सर्वथा निस्वार्थ भावसे उसका भोग करना भी कठिन है । इसका कारण यह है कि हम लोग दरिद्र हैं और पेटकी आग केवल सम्मानकी वर्षासे नहीं बुझ सकती। हम यह चाहते हैं कि अवसर पड़नेपर उस अनुग्रहके बदले में और कुछ भी ले सकें। हम लोग केवल अनुग्रह नहीं चाहते बल्कि उसके साथ ही साथ अनकी भी आशा रखते हैं। हम लोग केवल यही नहीं चाहते कि साहब
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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