SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [७१ लोकोद्धार] अभिरुचि उत्पन्न हो गई। (५) जनता तपश्चर्या के वास्तविक स्वरूप को समझ गई और उसकी यथासम्भव आराधना करने लगी। भगवान् महावीर ने दूसरा एक और महत्त्व का कार्य यह किया कि उस समय मनुष्य अपने उत्कर्ष के लिये पुरुषार्थ पर विश्वास रखने की अपेक्षा देव-देवियो अथवा यक्ष-व्यन्तरो की कृपा पर अवलम्बित रहनेवाले बन गये थे और उन्हे प्रसन्न करने के लिए अनेक प्रकार के उपाय करते थे। परन्तु भगवान् महावीर ने कहा 'अप्पा सो परमप्पा-तुम्हारी आत्मा है, वही परमात्मा है। उसमें ज्ञान और क्रिया की अनन्त शक्ति विराजमान है। तुम इसे प्रकट करना सीखो तो अन्य किसी की सहायता लेने की आवश्यकता नही रहेगी। ___ 'सुख-दुःख का अनुभव हमे अपने कर्मों के अनुसार होता है, अतः सत्कर्म करने की ओर लक्ष्य रखना इस बात को भी भगवान् महावीर ने बहुत ही उत्तम ढग से समझाया। इसके अतिरिक्त उन्होने पुरुषार्थ की पञ्चसूत्री पेश किया, जिसे उत्यान-कर्म-बल-वीर्य-पराक्रम का सिद्धान्त कहा जाता है। उसका रहस्य यह है कि सर्वप्रथम मनुष्य को आलस्य नष्ट करकेप्रमाद दूर करके खडा होना चाहिये, फिर कार्य मे लग जाना चाहिये। तदनन्तर उस कार्य मे अपना सारा बल लगा देना चाहिये, उस कार्य को पूर्ण करने का मन मे परिपूर्ण उत्साह रखना चाहिये, तथा कार्यसिद्धि के मार्ग में जो विघ्न, कष्ट अथवा कठिनाइयां आएं
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy