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________________ साम्ययोग] [४३ विषमता बढती है। जब ये दोनो समत्व मे लीन हो जाते हैं, तब आत्मा सम वन जाती है। भगवान् ने कहा-साम्ययोगी लाभ और अलाभ, सुख और दुःख, जीवन और मरण, प्रशंसा और निन्दा, मान और अपमान मे सम रहे। ये सब औपाधिक स्थितियाँ हैं। ये आत्मा को विषम स्थिति मे ले जाती है। सम स्थिति इनसे परे है। भगवान ने कहा-आत्मा न हीन है और न अतिरिक्त । सब समान है। अध्यात्म जगत् के पहले सोपान मे उत्कर्ष की भावनाएं टूट जाती है। जो मुमुक्षु होकर भी किसी को अपने से अतिरिक्त और किसी दूसरे को अपने से हीन मानता है वह सही अर्थ मे मुमुक्षु नही है। वह उसी व्यवहार-जगत् का प्राणी है जो जाति, वर्ण आदि के आधार पर आत्मा को ऊंच-नीच माने बैठा है। भगवान जातिवाद का खण्डन करने नही चले। यज्ञ-हिंसा और दास-प्रथा का विरोध करना भी उनका कोई प्रमुख ध्येय नही था । उनका ध्येय था समता-धर्म की स्थापना । यह खण्डन और विरोध तो उसका प्रासंगिक परिणाम था। जहां धर्म का आधार समता है, वहाँ जातिवाद हो नहीं सकता। जहाँ धर्म का आधार समता है, वहाँ यज्ञ-हिंसा और दास प्रथा का विरोध स्वतः प्राप्त है । भगवान् महावीर का सन्देश यदि इन्ही के विरोध में होता तो वह सोमित होता और अस्थायी भी। किन्तु उनका सन्देश असीम है और स्थायी और वह इसलिए है कि उसका ध्येय आत्मा की सम स्थिति को प्राप्त करना है। भगवान् ने सत्य को अनेकान्त की दृष्टि से देखा और उसका प्रतिपादन
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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