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[श्री महावीर-वचनामृत है अर्थात् मानता है। अज्ञानी क्या करेगा ? वह पुण्य और पाप का मार्ग को क्या जानेगा? ताणि ठाणाणि गच्छन्ति,
सिक्खित्ता संजमं तवं । भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिनिबुडा ॥१६॥
[उत्त० अ०५, गा० २८] पूर्वोक्त स्थानों को ( देवलोक को ) वे ही साधु अथवा गृहस्थ प्राप्त होते हैं, जो कि संयम और तप के अभ्यास से कषायों से रहित हो गए हैं।
दुल्लहा तु मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा। मुहादाई मुहाजीवी, दो वि गच्छन्ति सोग्गई ॥२०॥
[दश० अ०५, उ० १, गा० १०० ] इस संसार मे निःस्वार्थ वद्धि से देनेवाले दाता और निःस्वार्थ बुद्धि से लेनेवाले साधु-दोनों ही दुर्लभ हैं। अतः ये दोनो ही सद्गति प्राप्त करते है। जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं,
कारण वाया अदु माणसेणं । तहेव धीरो पडिसाहरिजा,
आइन्नओ खिप्पमिव क्खलीणं ।।२१।।
[ दश० चू० २, गा० १४]