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________________ ३६) प्रस्तावना ही मनुष्य देख सकता है कि वह परिपूर्ण है। भगवान् ने इसी अर्थ में कहा था कि आत्मा ही सुख-दुख का क्र्ता है और आत्मा हो अपना मित्र है और वही अपना नत्रु । जो आत्मा को जानता है, वह परिस्थिति से मुक्त होने का उपाय जानता है। जो आत्मा में रमण करता है वह परिस्थिति के चक्रव्यूह से मुक्त हो जाता है। अदृष्टि से उसकी इन्द्रिय और मन निरपेक्ष स्थिति है, वही अव्यात्म है। वहिर्जगत की दृष्टि से परिस्थिति से मक्त होने की स्थिति है. वह अध्यात्म है। आत्मा परिस्थिति या किसी बाहरी सत्ता पर निर्भर नही है। इसीलिए उसका अस्तित्व स्वतंत्र है। उसका स्वतत्र अस्तित्व है इसलिए उसका कर्तव्य भी स्वतत्र है।। • स्वावलम्बन साधना और आत्म-निर्भरता दोनो सम्बन्धित हैं। जितनी आसक्ति उतनी पर निर्भरता । जितनी पर निर्भरता उतनी विकाता। सावना का मुख स्ववशता की ओर है। भगवान ने कहा-सावना गांव में भी हो सकती है और अरण्य मे भी। वह गाँव मे भी नहीं हो सकती और अरण्य में भी नहीं। भगवान् बाहरी निमित्तों या स्थितियों की उपेक्षा नहीं करते थे किन्तु बात्मा की स्वतंत्र सत्ता के प्रतिपादक होने के कारण वे बाहरी निमित्तों को अतिरिक्त स्थान भी नहीं देते थे। सावू को सामुदायिक जीवन बिताने की छूट दी . पर साय-साथ यह भी कहा कि वह समुदाय मे रहता हुआ भी अकेला रहे। अकेला अर्थात् शुद्ध । बहुत अर्थात् अशुद्ध । जो अकेला होता है वह संगुद्ध होता है और जो संशुद्ध होता है वह अकेला होता है।
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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