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स्वतंत्र सत्ता और अध्यात्म ]]
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कहा~कोई एक व्यक्ति सबके लिए पाप-कर्म करता है, उसका परिणाम उसी को भोगना पडता है। इसका अर्थ है कि पाप-कर्म करते समय व्यक्ति का दृष्टिकोण सदा व्यक्तिवादी ही होना चाहिए और शक्ति सपादन के लिए समुदायवादी दृष्टिकोण। समुदायवाद नास्तिकता भी है। यदि उसका उपयोग इस अर्थ मे किया जाय कि मै वही करूंगा, जो सव लोग करते है। अच्छाई और बुराई का विचार किए विना केवल "सर्व" का अनुसरण करना नास्तिकता है अर्थात् अपनी आत्म-शून्यता है । व्यक्ति अपनी सत्ता के जगत् मे पूर्णत: व्यक्ति है और निमित्त जगत् मे पूर्णतः सामुदायिक है। कोई भी जीवित व्यक्ति केवल व्यक्ति या केवल सामुदायिक नही होता । अध्यात्म का अन्तिम बिन्दु यही होता है कि वहाँ पहुँच कर व्यक्ति निमित्त-जगत् से मुक्त हो जाता है, कोरा व्यक्ति रह जाता है। . स्वतंत्र सत्ता और अध्यात्म
भगवान् महावीर आत्मवादी थे। उनकी भाषा मे आत्मा परिपूर्ण है। उसका अस्तित्व पर-निर्भर नही किन्तु स्वतत्र है। इस स्वतत्र सत्ता का बोध ही अध्यात्म है। मनुष्य जितने अर्थ मे परिस्थिति का स्वीकार करता है, उससे भरता है, उतने ही अर्थ मे वह अपने स्वतत्र अस्तित्व से खाली हो जाता है। यह खाली होने की स्थिति भौतिकता है । जो कोई आध्यात्मिक वनता है, वह बाहर से कुछ लेकर नहीं बनता किन्तु बाहर से जो लिया हुआ है, उसे पुनः बाहर फेककर बनता है । अपूर्णता जो है, वह भीतर मे नही है किन्तु बाहर का जो स्वीकार है, वही अपूर्णता है। उसे अस्वीकार करके