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________________ ' ३६० ] [ श्री महावीर वचनामृत निस्संकिय-निक्कंखिय- निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य । वच्छल - पभावणे अट्ठ ||२|| उववूह - थिरीकरणे, [ उत्त० अ० २८, गा० ३१] सम्यक्त्व के आठ अङ्ग इस प्रकार समझने चाहिये :(१) निःशङ्कित, (२) निःकाक्षित, (३) निर्विचिकित्स्य, (४) अमूददृष्टि, (५) उपबृंहणा, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य, ओर (८) प्रभावना । विवेचन - (१) जिनवचन मे शङ्का नही रखना, यह निःशङ्कित, (२) जिनमत के बिना अन्य मत को आकांक्षा नही करना, यह निःकाक्षित, (३) धर्म-कर्म के फल मे सन्देह नही रखना, यह निर्विचिकित्स्य, (४) अन्य मतवालों के दिखावे मे न आना, यह अमूढदृष्टि, (५) सम्यक्त्ववारी को उत्तेजन देना, यह उपबृहणा, - (६) कोई सम्यक्त्व से विचलित होता हो तो उसे स्थिर करना, यह स्थिरीकरण, (७) साधर्मिक के प्रति वात्सल्य दिखाना अर्थात् उसको प्रत्येक प्रकार से भक्ति करना, यह साधर्मिक वात्सल्य और (८) जिनशासन की प्रभावना हो अर्थात् लोगों में उसका प्रभाव बढे, ऐसे कर्म करना यह प्रभावना । मिच्छादंसणरत्ता, सनियाणा हु हिंसगा | इय जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुलहा बोही ||३|| [ उत्त० अ० ३६, गा० २५८ ] जो जीव मिथ्यादर्शन मे अनुरक्त है, सासारिक फल की अपेक्षा हुए धर्मकर्म मे प्रवृत्त होते है तथा हिंसक हैं, वे इन्हीं भावनाओं रखते
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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