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श्री महावीर-वचनामृत
जैसे शरद् ऋतु का कमल पानी से अलिप्त रहता है, वैसे ही तू भी अपने स्नेहभाव को छिन्न-भिन्न कर दे और अपने समस्त स्नेहभाव को दूर करने मे हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। चिच्चा ण धणं च भारियं,
___ पवइओ हि सि अणगारियं । मा वन्तं पुणो वि आविए,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥२३॥
[उत्त० अ० १०, गा०२६] तू धन और भार्या को छोड़ कर अणगार धर्म मे दीक्षित हो गया है। अब इस वमन किये हुए विषयभोगो को पुनः भोगने को इच्छा मत कर । अतः इस कार्य मे हे गौतम ! तू समय मात्र का भी प्रमाद मत कर। अवउज्झिय मित्तवन्धवं,
विउलं चेव धणोहसंचयं । मा तं विइयं गवेसए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२३॥
[उत्त० भ० १०, गा० ३०] मित्र, वन्धुवर्ग तथा बहुत-सा धन छोडकर तू यहाँ आया है, अतः फिर से उसकी इच्छा मत कर। हे गौतम ! तु समय मात्र का भी प्रमाद मत कर।