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प्रमाद ।
[३११ एवं मणुयाण जीचियं,
समयंगोयम ! मा पमायए ॥११॥
उत्त० अ० १०, गा० २] जंने कुश के अग्रभाग पर स्थित ओस की बूंद गिरने की तैयारी मे रहती है और थोड़े समय तक ही टिकती है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी नष्ट होने की स्थिति मे ही रहता है और अल्प समय तक ही स्थिर रहता है । ऐसा मानकर हे गौतम ! तू समयमात्र का भी प्रभाद मत कर। इइ इत्तरियम्मि आउए,
__जीवियए बहुपच्चवायए। विहुणाहि रयं पुरे कडं,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥१२॥
[उत्त० अ० १०, गा०३] आयु थोड़ा है और जीवितव्य अनेकविध विघ्नों से भरा हुआ है, अतः पूर्व भव के कर्मों की रज दूर करने के लिये हे गौतम ! तू सयय मात्र का भी प्रमाद मत कर। दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सन्वपाणिणं ।
गाढा य विवाग कम्मुणो, समयंगोयम ! मापमायए ॥१३॥
[उत्त० अ० १०, गा० ४]