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[श्री महावीर-वचनामृत पहाय ते पासपयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उवेन्ति ॥४॥
[उत्त० अ० ४, गा० २] जो मनुष्य कुमति से पाप-कर्म करता हुआ धन सपादन करते हैं, वह विषय रूप पाश में बंध जाता है। ऐसे मनुष्य सग्रह किये हुए धन को यहाँ पर छोड नरक में जाते हैं, क्योंकि उन्होने इस तरह धन सपादन करते हुए कई प्राणियों के साथ वैरानुबन्ध किया है। संसारमावन्न परस्स अष्टा,
साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बन्धवा बन्धवयं उवेन्ति ॥शा
[उत्त० अ० ४, गा० ४] ससारी जीव अपने कुटुम्ब-परिवार के लिये कृषि, वाणिज्य आदि प्रवृत्तियाँ कर कर्म बाँचता है। पर जब वह कर्म का फल भोगने का समय आता है, तब बन्धुजन बन्धुता नही दिखलाते, अर्थात् उन कर्मो के फल का बंटवारा नही करवाते। अतः कर्मों का फल उस अकेले को ही भोगना पडता है। वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते,
इमम्मि लोए अदुवा परत्था । दीवप्पणढे व अणंतमोहे,
नेयाउयं दद्रुमदछमेव ॥६॥
[उत्त० भ०४, गा०५]