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धारा : २७ :
प्रमाद
पमायं कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहाज्वरं । तभावादेसओ वावि, वालं पंडियमेव वा ॥१॥
[ ० ० १, अ० ८, गा० ३] तीर्थङ्करादि महापुरुषों ने प्रमाद को कर्मोपादान का कारण वतलाया है और अप्रमाद को कर्मक्षय का । इसी कर्मोपादान और कर्म-क्षय के कारणवश ही मनुष्य को वाल और पडित कहा जाता है । साराग यह है कि जो प्रमाद के वशीभूत होकर कर्मोपादान करता है, वह वाल है - अज्ञानी है और जो अप्रमत्त वनकर कर्म का क्षय करता है, वह पण्डित हैं-जानी है |
विवेचन - धर्मारावन में आलस्य और विषय कपाय मे प्रवृत्ति
इस प्रकार के प्रमाद का
इसे सामान्यतया प्रमाद कहा जाता है । सेवन करते हुए कर्म का उपादान होता है, अर्थात् आत्मा को कर्म का बन्धन होता है और उससे आत्मा भारी वन जाती है। जबकि अप्रमत्त वनने से अर्थात् सदनुष्ठान का सेवन करने से कर्म का क्षय होता है और आत्मा हल्की बनती है । इसलिये सुज्ञ मनुष्य के लिए प्रमाद का त्याग करना ही उचित है ।