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[श्री महावीर वचनामृत बाइया संगहिया चेब, भत्तपाणण पोसिया । जायपक्सा जहा हमा, पक्कमंति ढिसो दिसि ॥१३॥ अह सारही विचिंतेइ, खलुंकेहि समागओ। किं मज्स दुङ्सीसेहिं, अप्पा मे अवसीयई ॥१४॥
ऐने प्रसंग पर धर्मरथ के सारथि स्वरूप आचार्य विचार करते है कि मैने उनको गास्त्र पढाये, अपने पास रखा, आहार-पानी से इनका पोपण किया। किन्तु जिस तरह हसों के पख फूटने पर वे अलगअलग दिशाओं मे उड़ जाते हैं, उसी तरह सब भी स्वेन्छानुसारी आचरण करनेवाले बन गये हैं। मुझे मला इन दुष्ट गियों से क्या प्रयोजन है ? मेरी आत्मा व्यर्थ ही खिन्न होती है।
जारिसा मम सीसा उ, तारिसा गलिगद्दहा । गलिगदहे जहिताणं, दढं पगिण्हई तवं ॥१॥
[उत्त० अ०७, गाले १६] जैसे गवे आलसी और अडियल होते हैं, वैसे मेरे गिप्य है। इन आलसी और अड़ियल गवों जैसे शिष्यों को छोड़कर मे उन तप का आचरण क्यों न करूं? तात्पर्य यह है कि मोक्षाभिलापी आचार्य को ऐले कुनिज्यों का त्याग करके अपना क्ल्याण साव लेना चाहिये।
रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए । चालं सम्मइ सासन्तो, गलियस्सं व वाहए ॥१६॥
[उत्तः २० , गा०]